संजा: प्रेम ,एकता और सामंजस्य का सृजन करती
लोककलाओं की संस्थाए में बड़ी संख्या में लड़कियाँ एकत्रित होकर संजा बनाती है। छत्तीसगढ़ ,बुंदेलखंड क्षेत्र में लड़किया झाड़ की पत्तियाँ को विशेषकर नीबू को ओढ़नी उड़ाकर फूलों से सहेजने की प्रक्रिया को वे मामुलिया बोलते है पर्व मनाते है।लोक गीतों और कलाकृतियों को बचाने में कई स्थानों पर संजा उत्सव संस्थाए पुनीत और प्रेरणादायी कार्य कर रही है|जो की प्रशंसनीय है। तिथिवार कलाकृतियों के नाम क्रमशः पुनम का पाटला ,एकम की छाबड़ी ,बीज का बिजोरा ,तीज का तीजों ,चौथ का चोपड़ ,पंचम का पांच कटोरा ,छट का छः पंखुडी का फूल ,सातम का स्वस्तिक -सातिया ,अष्टमी को आठ पंख़ुडी का फूल ,नवमी का डोकरा -डोकरी ,दशमी का दीपक या निसरनी ,ग्यारस का केल ,बारस का पंखा ,तेरस का घोडा ,चोदस का कला कोट ,पूनम का कला कोट ,अमावस का कला कोट।श्राद के 16 दिनों कुँवारी कन्याओं द्धारा गोबर, फूल -पत्तियों आदि से संजा को संजोया जाता है ।
मधुर लोक गीतों की स्वरलहरियाँ घर घर में गुंजायमान होती है।वर्तमान में संजा का रूप फूल -पत्तियों से कागज में तब्दील होता जा रहा है । संजा का पर्व आते ही लडकियां प्रसन्न हो जाती है।संजा को कैसे मनाना है ये बातें छोटी लड़कियों को बड़ी लड़कियां बताती है। शहरों में सीमेंट की इमारते और दीवारों पर महँगे पेंट पुते होने, गोबर का अभाव ,लड़कियों का ज्यादा संख्या में एक जगह न हो पाने की वजह ,टी वी ,इंटरनेट का प्रभाव और पढाई की वजह बताने से शहरों में संजा मनाने का चलन ख़त्म सा हो गया है ।लेकिन गांवों /देहातो में पेड़ों की पत्तियाँ ,तरह तरह के फूल ,रंगीन कागज ,गोबर आदि की सहज उपलब्धता से ये पर्व मनाना शहर की तुलना में आसान है । परम्परा को आगे बढ़ाने की सोच में बेटियों की कमी से भी इस पर्व पर प्रभाव पढ़ा है। "संजा -सोलही गीत को देखे तो -"काजल टिकी लेव भाई काजल टिकी लेव /काजल टिकी लई न म्हारी संजा बाई के देव ",संजा तू थारा घरे जा /थारी माँ मारेगा के कूटेगा "नानी सी गाड़ी लुढ़कती जाए "संजा बाई का सासरे जावंगा -जावंगा "संजा जीम ले "मालवी मीठास लिए और लोक परम्पराओं को समेटे लोक संस्कृति को विलुप्त होने से तो बचाती है साथ ही लोक कला के मायनो के दर्शन भी कराती है।
संजा की बिदाई मानों ऐसा माहौल बनाती है जैसे बेटी की बिदाई हो रही हो सब की आँखों में आंसूं की धारा फूट पड़ती है |ये माहौल बेटियों को एक लगाव और अपनेपन का अहसास कराता है।बस ये बचपन की यादें सखियों के बड़े हो जाने और विवाह उपरांत बहुत याद् आती है।कही- कही अंग्रेजी एवं फ़िल्मी गीतों की तर्ज की झलक भी गीतों में समाहित होने से एक नयापन झलकता है।रिश्तों के ताने बाने बुनती व् हास्य रस को समेटे लोक गीत वाकई अपनी श्रेष्ठता को दर्शाते है।श्रंगार रस से भरे लोक गीत जिस भावना और आत्मीयता बेटियाँ गाती है।उससे लोक गीतों की गरिमा बनी रहती और ये विलुप्त होने से भी बचे हुए है।मालवा - निमाड़ ,राजस्थान ,गुजरात राजस्थान ,महाराष्ट्र ,हरियाणा ,ब्रज के क्षेत्रों की लोक परम्परा में इनको भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है |श्राद पक्ष के दिनों में कुंवारी लडकिया माँ पार्वती से मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिए पूजन अर्चन करती है।विशेषकर गाँवों में संजा ज्यादा मनाई जाती है।
संजा पर्व एक पाठशाला है |संजा से कला का ज्ञान प्राप्त होता है ,पशु -पक्षियों की आकृति बनाना और उसे दीवारों पर चिपकाना। गोबर से संजा माता को सजाना और किला कोट जो संजा के अंतिम दिन में बनाया जाता है ,उसमे पत्तियों ,फूलों और रंगीन कागज से सजाने पर संजा बहुत सुन्दर लगती है | लडकियाँ संजा के लोक गीत को गा कर संजा की आरती कर प्रसाद बांटती है ।श्रंगार रस से भरे लोक गीत जिस भावना और आत्मीयता से गाती है ,उससे लोक गीतों की गरिमा बनी रहती और ये विलुप्त होने से भी बचे हुए है ।मालवा - निमाड़ की लोक परम्परा श्राद पक्ष के दिनों में कुंवारी लडकिया माँ पार्वती से मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिए पूजन अर्चन करती है ।विशेषकर गाँवों में संजा ज्यादा मनाई जाती है ।संजा मनाने की यादें लड़कियों के विवाहोपरांत गाँव /देहातों की यादों में हमेशा के लिए तरोताजा बनी रहती है और यही यादें उनके व्यवाहर में प्रेम,एकता और सामजस्य का सृजन करती है ।संजा के गीतों की खासियत ये भी है कि जब लड़कियां आरती समाप्त करती तो जो प्रसाद वितरित किया जाता है।उसके पहले वो उस प्रसाद को ढांक के रखकर प्रसाद का नाम भी पूछती है।किंतु प्रसाद का नाम नही बता पाता।जब कोई बता देता या नही भी बता सकती तब अंत मे प्रसाद वितरित किया जाता। गीत मन को छू जाते है।लड़कियां एक सहेली के घर गीत गाने के बाद अन्य सहेलियों के यहां मनुहार के बाद जाती है।इस तरह संजा के लोकगीत बचाने में पर्व का महत्व बरकरार है। संजा विसर्जन के समय जिस गांवों में नदी बहती है।उसके किनारों पर तगारी,टोपले में संभाल कर रखी गई संजा को नदी में विसर्जन किया जाता है।ये पर्यावरण की हितेषी है।इसको जल में प्रवाहित करने पर नदी प्रदूषित नहीं होती।लड़कियों का इतने दिनों तक संजा के संग रहने और अब अगले वर्ष संजा का आना आंखों में आंसू ला देता है।खाली तगारियों, टोपलो को वे नदी के किनारे एक के ऊपर एक रखकर उस पर से कूदती है।शायद ये वियोग को भुलाकर इस तरह खुशियां समाहित करती है।संजा पर्व की यादें विवाह उपरांत ताउम्र याद रहती है।संजा के गीत मुखाग्र एक दूसरे से सीखने जाती है।शाम होने पर इनके मधुर गीत कानों में मिश्री घोलते है।संजा पर्व पर ही गाए जाने गीतों को सुनने के लिए लोग घरों से बाहर आ जाते और चलते हुए राहगीरों के पग रुक से जाते। संजा सीधे- सीधे हमें पर्यावरण से ,अपने परिवेश से जोडती है ,तो क्यों न हम इस कला को बढ़ावा दे और विलुप्त होने से बचाने के प्रयास किए जांए | संजा मनाने की यादें लड़कियों के विवाहोपरांत गाँव /देहातों की यादों में हमेशा के लिए तरोताजा बनी रहती है और यही यादें उनके व्यवहार में प्रेम,एकता और सामजस्य का सृजन करती है । संजा सीधे- सीधे हमें पर्यावरण से ,अपने परिवेश से जोडती है ,तो क्यों न हम इस कला को बढ़ावा दे और विलुप्त होने से बचाने के प्रयास किए जांए ,वैसे उज्जैन में संजा उत्सव पर संजा पुरस्कार से सम्मानित भी किया जाने लगा है ।साथ ही महाकालेश्वर में उमा साझी महोत्सव भी प्रति वर्ष मनाया जाता है।कुल मिला कर संजा देती है कला ज्ञान एवं मनोवांछित फल प्रदान करती है।
संजय वर्मा 'दॄष्टि '
125 ,बलिदानी भगत सिंह मार्ग
मनावर जिला धार (मप्र )