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अनुपम कृति ईश्वर की हमारे लिये ,कड़क की बोली लेकिन प्रेम की छाह,तल्लीनता आपकी हमारे अध्यापन में,परेशानियों को हल करने की चाबी,सुखद है तेरी छाया पाकर हम,नमन है तुमको हे! गुरुदेव।
गुमसुम सी तुम थी,एक शाम यूँ ही तुम्हे देखा बारिश की बूँदों से,तुम भींगी जा रही थी।था तुम्हे दूर जाना अपने निकेतन को,यह देख कवि का दिल हुआ विभोर और करने लगा शोर,खा जाके हे सखी! ये लो रेनकोट धारण करो इसे,था रेनकोट बढ़ा,सखी को रेनकोट पहनना याद है।
यूँ न था मैं गुमसुम पहले, जब तुम मिले बरसात की साँझ,सीखा तुमसे मुस्कुराना गम में भी, तुम्हारी यादें कुछ अनकही सी है,मिलते थे तुम तो जब तो मन मंद मुस्कुराता था ,और गीत प्रीत के गाता था ,अब साथ मेरे केवल तुम्हारी यादों का झरोखा ही शेष है।