4 मार्च 2024
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शब्दों को अर्थपूर्ण ढंग से सहेजने की आदत।D
© ओंकार नाथ त्रिपाठी मैं!ढुंढता,रह गया,इंसान!जो मेरी, तबीयत पूछे।मगर!यहां तो-कदम दर कदम,लोग!हैसियत!!और-वसीयत की,चाहत में
मैं!ठहरा,पथ का,पथिक। मेरे-सफ़र का,अंत!नहीं होने वाला।एक!सफ़र ख़त्म,तब!दुसरा शुरू।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
कभी,हम दोनों ही,वजह! ढुढते रहते थे,एक साथ, साथ-साथ रहने का।और-अब तुम हो,कि-बहाना!बनाती रहती हो,मुझसे!दूर जाने का।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &nbs
जब-कभी मैं!बैठता हूं,अकेले में। मिल जाते हैं,मुझे!तब,तेरी-नजरअंदाजी के,जवाब!अपने आप ही।फिर भी-खुद को, कोसता,तेरी-तरफदारी में,पुरजोर से,जुट जाता हूं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर
न ही-तुम बुलायी,और-न ही मैं,तेरे-बुलाने पर आया।मैं तो-मिलने के लिए,तेरे पास-बहाने से आया।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &nb
अब!धीरे-धीरे,शाम!हो चली हैं।घर!वापसी को हूं,सर्द हवाएं! मुझे-आहिस्ते-आहिस्ते,छूने लगी हैं,और-जगाने लगी हैं,मुझमें,अहसास! तेरा।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &nb
मेरी!धड़कनें,तेरी!सांसों की,महक से-ऊर्जित होती हैं।तुम!महकती रहना, ताकि!मेरे दिल की,धड़कनें!बनी रहेंगी।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।  
मुझे!ढ़ाढस,बंधाते हुए,एक दिन,उसने-कहा था कि-समय!बदलता है।लेकिन!मैने,उसको,समय के, पहले ही,बदलते देखा ।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
कैसे-मुकरा जाता है,अपने-वादों से?चलो!यह हुनर भी,कहीं- सीखा जाये।अब!थक गये हैं,बहुत!इन्हें निभाते-निभाते।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &nbs
जब-महफ़िल की,खुशियों में,सराबोर रही तुम!वहीं!उस भीड़ ने,मुझे-अकेला कर दिया।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। (चित्र:साभ
बार-बार,तेरे!खयालों की,लहरें!भीगो जाती हैं,मुझे!मेरे वजूद को,छूकर।एक-सुकून! भरा,अहसास!दें जाती हैं,मेरे-तन मन को।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
तुम!खो गयी हो,मुझसे!कहीं पर।क्योंकि-खुबसूरत हो,बिल्कुल!मेरे-बचपन!और-बीते हुए,लम्हों! की तरह।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
तेरा!ब्लाक तथा-इग्नोर करने का,शौक!याद आ गया,मुझे!इसीलिए तो-यही!मैंने तुम्हें-तोहफा में दिया।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
क्या?कुछ मसले,खामोशियों को,सुलझा पायेंगे?अपने ही,उलझनों से,उलझी हुई है,जो जिंदगी!क्या?रफा दफा,कर सकेगी,गिले शिकवे!को,आधी दुनिया,खुद से,कभी?दरख्तों की,गुहार पर,कहां तक-भरोगे हामी?आईने में,जो हंसती रहती
फुर्सत!मिले तब,कभी,फिर-इस गली में, आना।मैं तुम्हें! अपनी- सांसों में,बसी,तेरे!नाम की,महक!महकाऊंगा।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
मेरी!उम्मीदें,हमेशा ही,टुटती रही है।मेरा-सोचना!कि खुश होगी,मेरी नादानी रही।संतुष्ट-न हो पाना,उसकी प्रकृति है,लाख करलो प्रयास।क्योंकि-वह स्त्री है,आधी दुनिया!पूर्ण खुश कैसे रहे?© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशो
आज!आसमान से,जमीन तक,पहुंचने वाली,ओस की,बूंदों के,टूट कर भी, अपने तक,पहुंचने की,चाहत पर,पत्तियां,विभोर हो, खिलखिला कर,नाच उठीं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।  
जैसे-जैसे!घटता!जा रहा हूं, मैं,खुद में!वैसे-वैसे ही-बढ़ती! जा रही हो,तुम मुझमें।हमारी-खुशियां!डिलेवर होती रहीं,ग़लत पते पर।शायद!तभी-हम तक, पहुंची नहीं।अभी तक है,कद्र!दिल में- तेरी
रिश्तों में,निखार!केवल- जरुरतों,तक ही,साथ!रहने से,नहीं आता है।बल्कि!विपरित,परिस्थितियों में,साथ-साथ, एक साथ! होने से आता है।लेकिन-ऐसे में,तेरा साथ!कहां रहा?© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर
सुबह से-शाम तक।दिन से-रात तक।हर पल,पल-पल।एक ही-धुन पर,चलता है,दिन रात।हे मनुज! तुम-क्या?जाने को,एक दिन,खाली हाथ,यहां से,तुम।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।  
मैंने तो-तेरा साथ,अपनी-जलालत तक,निभायी,तुमसे।एक-तुम हो,कि शायद,मुझे-याद!रखना भी,जरुरी!ना समझी।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।  
मैं!बहका भी,तुम्हीं को,छूकर!इस- जहां में;और- महका भी,तेरे! इश्क में,रुह तक,उतर जाने के बाद।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
मैं तो,हरपल, तेरा साथ- निभाने के लिए,तुम्हें!मनाता रहा हूं।तुम्हीं हो,जो छोड़कर,मुझे!चल दिया करती हो।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &n
तुम तो-किताब हो,विनम्रता,अदब! और तहजीब की।ममता और- वात्सल्यता,तेरी तो,पहचान रही है।आज!मौन है, मेरे लिए-यह सब कुछ।क्योंकि-मेरी धरती रही मां!निश्तेज पड़ी है,बिस्तर पर।मैं,असहाय!निरु
तेरा-सुहागन होना!और-मेरा!आवारापन,एक-गजब का,संयोग है,ऐसे!वियोग का।तूं तो-महलों की, बनी-राजरानी, मैं! खानाबदोश,भटकता,बंजारा।आज!मौन कह रहे,जो मेरे,वह-शब्द कहां?कह पायेंगे।© ओंकार नाथ त्रिप
आज-खामोश आंखें,ढुढ़ रही थीं,तुम्हें!और शायद!तुम भी,मुझको ही,ढुढ़ रही थी।तुम तो-मुझको पा गयी,पर तुमको,मैं,पा न सका।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
मेरे!जीवन के,मीठे!सफ़र को,चाहतों ने-कड़वा!तथा-कसैला बना दिया।मुझे!नहीं पता रहा,लोग!छांव की खातिर,ठहरे रहे, मेरे पास।जीवन! पथ के-भरी दुपहरी में,पथिक बने।उन्हें-लुटाता रहाअपनी,शीतल छाया।लेकिन!
तूने-मेरी आवाज़!भले ही,न सुनी हो,लेकिन-तेरी- खामोशियों को,सहलाया है मैंने।तेरे!रुठने पर,हरबार!मनाने की,नई-नई,तरकीबें ढुंढी हैं ।खुद की,खुशियों को,गिरवी रखकर,तेरी खुशियां खरीदी।मुझे! नशा तो न
मैंने!रिश्तों को,जताये वगैर ही,निभाया अब तक।मुझे!कोई फर्क!नहीं पड़ा कि-दूर या पास का? मैं तो-सहता रहा,हरेक बात को,ताकि रिश्ते ढहें न।हमनें-लिखा था,मिलकर साथ,मोहब्बत के शब्द!जिसको-मैं पढ़ता रहा ,ल
तेरा-साथ मिलना,मेरे लिए,मंजिल के,तलाश,की तलब!नहीं रही।मैं तो,हर कदम पर,तेरे,साथ! चलना चाहता था।लेकिन-तुमने तो,आधी राह में ही,मुझे छोड़ दी।तभी तो-अधूरी रह गयीं,सारी हसरतें!जो पल गयी थीं।और-झांकने
आज!कानों ने,कई दिनों बाद!तेरी आवाज़ को सुना।मैंने जिंदगी को,थोड़ा रोका,खुद भी-कुछ देर के लिए ठिठका।फिर- बीते लम्हों की यादें,होठों पर थिरकीं!मैं मुस्कुराया।तेरे इश्क की, खुशबू !मेरे रोम-रोम
जब!मुझे घेर लेती हैं,तुम्हारी यादें!तेरी अनुपस्थिति में।तब मैं!आकाश की ओर,देखता हूं,वह समझ जाता है,मेरे मन की बात।उसी से,बतियाने लगता हूं,और वह भी-बतियाता है मुझसे।अक्सर! वह मेरी बातें, बिना
तेरा,शबाब!इतना-शराबी है,कि-,तुम! नदी में,क्या नहाई,मछलियां तक,शराबी हो गयीं।तुम्हें!देखकर,जब-मुस्कुराया,यह मेरी!बेहयाई लगी।लेकिन!दिल है कि-मानता ही नहीं,मुहब्बत!बढ़ती ही गयीतेरे नखरों के साथ।© ओं
अपना-सब कुछ,बांटा हैतुमने!दिल!दे दी,प्रेमी को,अपने,तन!पति पर,किया, न्योछावर,मन!बच्चों के,संग!बंध गया,जीवन!हवन!कर दिया है,कुल पर।धन्य है तूंहे स्रष्टा!सृष्टि की तूंजननी है न्यारी।ईश्वर की हो,अप्रतिम,कृ
जब से,कंक्रीट के,जंगल!उग आये हैं,जंगल के,आस-पास,तभी से-जंगली!!जानवर भी,भयभीत! रहने लगे हैं,इसके बासिन्दों से।अब- गीदड़ भी,नहीं निकलते,जंगल से;अपने!मौत की,कहावत!सुनने के बाद।© ओंकार नाथ त्रिप
तुम!फकत जिस्म!होगी-किसी के लिए।लेकिन-मैंने तो सिर्फ, तेरी रुह से,मुहब्बत की है।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &
मुझे!पता है,कि-तुम्हें!मालूम है,घर के-एक-एक सामान,कहां?और,किस जगह हैं।किसे-कब?और-क्या चाहिए।कौन,कहां,होना चाहिए,चाय, नाश्ता !भोजन तथा पानी का,कौन-कौन सा,समय है?कौन सोया?कौन नहीं?दवा की जरूरत,किसे है?स
मैं तो-तनहा हूं,क्या-तुम भी हो?कल तो-साथ थे हम!पर,अब-आज कहां हैं?सरके-जा रही है जिंदगी,धीरे-धीरे,हमें यहां छोड़कर,जिस्म यहां-दिल कहीं और लेकर।आंखें हैं-वो रात जगे भी हैं,पर,वह!तेरा साथ कहां?© ओंकार ना
लोग!भूल रहे हैं,तो क्या हुआ?भूलने दो।तुम भूल जाओ,कि वो भूल गये।लेकिन!यह मत भूलना,जब जरूरत होगी,तब जरुर-याद करेंगे वो,वह समय तो आने दो।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
तुम तो-हिस्सा हो,मेरी!उन कविताओं का,जिसे-मैं लिखता तो गया,लेकिन-आज तक,समझ नहीं सका।मैं हार गया,तुम्हें भूला न सका।तुम तो!मेरी- कविताओं,और-अधरों!की मुस्कान तथा-मन के,राहत का,उत्स!रही हो।यह,जो
जब से-तुम भूल गयी,बचपन की रसोई में,सामानों की जगह।तभी से-समझ गया,अब तुम-रच बस गयी हो,अपने ससुराल की-रसोई घर में।इस सच से-न मैं हैरत में हूं,और सच में!तुम भी हैरान कहां?© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बश
भले ही-कर दो डिलीट!मेरी फोटो,डीपी या चैट!लेकिन-नहीं हो सकेगीं,डिलीट कभी भी यादें।क्योंकि-मैं तेरे दौर से,गुजरा! वह मुसाफिर हूं,जो भली-भांति, समझता है तुम्हें।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बश
तेरा-यूं अचानक मिलना,मुझे-कचोटता रहा।क्योंकि-आज वर्षों बाद,मिली थी तुम,इस तरह।मैं तो-देखता रहा,भावनाओं की,गहराई को;लेकिन-इतने दिनों के,अंतराल पर,इस मिलन कीखुशबू!पहले जैसी नहीं लगी।© ओंकार नाथ त्रिपाठी
सच में,अगर ख्वाब!नहीं होते,तब तो-तुमसे मिलना भी,नहीं हो पाता।शुक्र है,खुदा का,जिसने-ख्वाब बनाकर,मुझको मिलाता है तुमसे।वरना!मैं पड़ा रहता,खामोश!तेरी रुह को,सुनाने की,कोशिश में।और तुम-इंतजार!करती रह जात
आखिर!डरे सहमे,हिरनों ने भी,अंगड़ाई लेकर,बैठक में,निर्णय!ले ही लिया, अपन इतिहास!खुद ही,लिखने का।अब वो,थक गये थे,जंगल के राजा!और शिकारी! का,इतिहास! पढ़ते-पढ़ते।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बश
जो-न तो,नियंत्रित हुआ,और-न ही,नियंत्रण किया।वह-प्रेम ही है,तो भला!इसे-रोका कैसे?जा सकता।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &nbs
मुझे!ज्यादा नहीं,समझ सकी,अब तक।तुम्हारी पसंद,शायद!मेरे अलावा,कई! और रहे हों।वक्त का,तकाजा रहा है,तेरे!बदलते,स्वरूप पर,माप तौलकर!निकलते रहे मेरे शब्द।तुम!सोती रही,सुकून भरी,नींद रात भर।शीशे से,आंसुओ के
चलो!लापरवाह बनकर,कुछ!आराम किया जाये।बहुत!थक गये हैं हम तो,अब!परवाह करते-करते।डरता हूं, मैं तुमको खोने से,इसीलिए!थोड़ी दूरी बनाये रहता हूं,नाराज़गी!तेरे प्रति मेरी कत्तई नहीं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी
मैं! सोया ही था,कि-अचानक!तेरी आवाज़,कानों से टकरायी।मुझे लगा,जैसे तुम! मुझे-पास आकर, बुलायी।जब!मैं जगा,न तुम थी,न तेरी आवाज़!केवल!सन्नाटा पसरा था।इसके बाद, तुमको! ढुढ़ते-ढुढ़तेमेरी