बिखरा था स्वर्ण राह में
मैं धूलिकण चुनता रहा,
अथाह ज्ञान हर तरफ
मैं मूढ़, स्वप्न बुनता रहा!
उँगली पकड़ के ले चला जो
नहला दिया प्रकाश से,
वह गुरू था, दिव्य पावन
उतरा किसी आकाश से!
ममता दुलार पर अनुशासन
मेरे गुरु की पहचान यही
हॄदय विराजो हे पथ प्रदर्शक,
राहें चुनना आसान नहीं!
तराशना वह जानता है
अनगढ़ कोई पत्थर भले
अभीष्ट मिल ही जाएगा अब
गर कोई तत्पर रहे!!
मौलिक एवं स्वरचित
श्रुत कीर्ति अग्रवाल
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