पिता
तुम्हारी पीठ की सवारी
से शुरू हुआ सफर मेरा
सपनों के पंख पहन
जब आसमानों की ओर
उन्मुख हुआ
समर्थ था, गर्वान्वित था मन
कहाँ पता था
कि मेरी डोर थाम
दिशाएँ तो तुम दे रहे हो!
जेठ-आषाढ़ की कड़ी धूप में
सख्त मिट्टियाँ कोड़-कोड़ कर
तुमने रोपा जो नन्हा बिरवा
सुदृढ तने पर खड़ा हो गया
शीतल मलयज में झूम रहा है
कहाँ पता था
कि अपने लगाए वृक्ष को
खाद-पानी तो तुम दे रहे हो!
भले गात कुछ वृद्ध हो गया
आत्मविश्वास जरा सा डगमग
तन को और मन को, दोनों को ही
इक जरा आस अवलम्बन की थी
पर तुम बूढ़े नहीं हुए थे
कहाँ पता था
अनुभवों की गठरी बाँधे
जीने की सीख तो तुम दे रहे हो।
मौलिक एवं स्वरचित
श्रुत कीर्ति अग्रवाल
shrutipatna6@gmail.com