मेरी रचना उन कामगार भाई-बहनों को समर्पित है, जो दूर गाँव कस्बों से अपने परिवार के साथ, शहर में काम करने आते है | ईंट के भट्ठे , बहुमंजिला ईमारत , सरकारी सड़क,पुल या अन्य किसी परियोजना में कामगार परिवार कई कई वर्षो तक मेहनत करते दिखाई दे जाते हैं | उनके बच्चो की मनोदशा का चित्रण करने का प्रयास मात्र -------
श्रम
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श्रम में
मैंने आँखें खोली
श्रम के
साथ ही रोया
चला पकड़ मै श्रम की ऊँगली
श्रम के बीच ही सोया |
श्रम ही
मेरा खाना पीना
श्रम ही
मेरा बिस्तर
श्रम ही
मेरे भाई बंधु
श्रम ही
मेरी सिस्टर |
थकती नहीं
परिश्रम से माँ
और न मेरे
बापू
दिन-भर
ढोती ईटा-गारा
टुकुर
टुकुर मै ताकूँ
श्रम ही अपना
कपडा- लत्ता श्रम के बिना न
हिलता पत्ता बीन-बीन मै मै
भी ले लाता लोहा, बोतल,
शीशी, गत्ता |
मोटी-मोटी सेंक
के रोटी
नमक प्याज से
खाके
कभी-कभी ऐसा भी
होता
हम सब मारे फांके
|
श्रम के बीच ही
खेल कूद के
बड़ा हुआ कुछ ऐसे
हाथ
पसारे आज भी बचपन
ठहर
गया हो जैसे |
उमा विश्वकर्मा
कानपुर