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श्रम

29 मई 2016

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मेरी रचना उन कामगार भाई-बहनों को समर्पित है, जो दूर गाँव कस्बों से अपने परिवार के साथ, शहर में  काम करने आते है | ईंट के भट्ठे , बहुमंजिला ईमारत , सरकारी सड़क,पुल या अन्य किसी परियोजना में कामगार  परिवार कई कई वर्षो तक मेहनत करते दिखाई दे जाते हैं | उनके बच्चो की मनोदशा का चित्रण करने का प्रयास मात्र ------- 


श्रम -----

 

श्रम में मैंने आँखें खोली

श्रम के साथ ही रोया

चला पकड़ मै श्रम की ऊँगली

श्रम के बीच ही सोया |


श्रम ही मेरा खाना पीना

श्रम ही मेरा बिस्तर

श्रम ही मेरे भाई बंधु 

श्रम ही मेरी सिस्टर |


थकती नहीं परिश्रम से माँ

और न मेरे बापू

दिन-भर ढोती ईटा-गारा

टुकुर टुकुर मै ताकूँ 


श्रम ही अपना कपडा- लत्ता

श्रम के बिना न हिलता पत्ता

बीन-बीन मै मै भी ले लाता

लोहा, बोतल, शीशी, गत्ता |


मोटी-मोटी सेंक के रोटी

नमक प्याज से खाके

कभी-कभी ऐसा भी होता

हम सब मारे फांके |


श्रम के बीच ही खेल कूद के

बड़ा हुआ कुछ ऐसे

हाथ पसारे आज भी बचपन

ठहर गया हो जैसे |


उमा विश्वकर्मा 

कानपुर 

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