सिलवटें ही सिलवटें है
ज़िंदगी की चादर पर
कितना भी झाड़ों,फटको
बिछाकर सीधा करो
कहीं न कहीं से कोई
समस्या आ बैठती
निचोड़ती,सिकोड़ती
ज़िंदगी को झिंझोड़ती है
फिर सलवटों से भरकर
अस्त-व्यस्त ज़िंदगी
फिर ग़म को परे झटकती
आँसुओं में भीगती
फिर आस में सूखती
फीके पड़ते रंगों से
अपना दर्द दिखाती
जिम्मेदारी के बोझ तले
दबती और सिकुड़ती
घिस-घिस के महीन हो
मुश्किलों से लड़कर
अंततः झर से झर जाती
फिर सीधी-सपाट होकर पड़ी
बिना किसी हलचल
बिना कोई झंझट के
सारी परेशानियों से मुक्ति पा जाती
***अनुराधा चौहान***