एक दिन यूँही गुज़रना हुआ,नदी के किनारे से।आवाज़ कुछ सुनाई दी नदी किनारे से। पास कुछ जाना हुआ तो पानी से आवाज़ अति थी।बोली नदी रुंधे गले से,डाला हर प्रकार का कचरा तुमने मुझ में मैं कुछ न बोली।गिराने लगे केमिकल मैं कुछ न बोली,कभी कभी तुम आकर भाषणों में मेरा नाम ले जाते।मुझे लगा शायद सफाई की सौग़ात हो दे जाते।अब तो तुमने हद कर दी जहरीले झागों से मुझे है भर डाला,लड़े हो सब और बदलते हो पला ।बोलते हो मैंने नहीं उसने है डाला।लड़ के भगवान से लाई थी पुरखों ने नदियां तुमने उन्ही नदियों का विनाश है कर डाला।सोचते हो की मेरा क्या जाता है मेरे घर में तो आ.रो.का पानी आता है।मतिभ्रमित मुढ़ हो तुम चक्र पढ़ा है तुमने प्रकृति का अगर तो खा रहे हो जो तुम खाना उसही में मिला है ये पानी झगवाला।नदी से सिंचाई की है जाती और फिर घूम कर फेकी तुम्हारी गंदगी तुम्हारे पास है आती।अब न मैं कुछ बोलूंगी,तुम खुद ही आओगे एक दिन पर अफ़सोस तब तुम कुछ न कर पाओगे।
तबसे चिंतित मैं सोचती हूँ हाय ये क्या कर डाला।पानी के लिए आ.रो. हवा के लिए ए.सी. लगवा के।पत्थर के जानवर बनवाते असली को भागवा के।किस मुँह से खुद को सब से बुद्धजीवी प्राणी धरती का हम कहलाते।