मुहब्बतों का ये मंजर भी गुज़रना चहिये था मेरी आँखों से समंदर भी उतरना चाहिये था मेरी खामोशी को मेरी हार मत समझे ये दुनिया मेरी गर्दिश के सितारे को उभरना चाहिये था जिस गली से वो थे गुज़रे फूल मुरझा ही गये उनको अपना दुपट्टा सर से ढकना चाहिए था हाथ मे जब हाथ लेकर हमसे वो कहने लगे राही तुमको हमसे थोड़ा पहले मिलना चाहिये था बहता आया पर्वतों से और तुझमें घुल गया इस नदी को भी तो लहराता समंदर चाहिये था बादलो ने रोक रखी धूप मेरी सर्दियों में आज मौसम है सुहाना तो बरसना चाहिये था मेरे पथ पर आज चल के पैर डगमग हो रहे है अब तुम्हे साथ भी राही से बढ़कर चाहिये था तेरी आँखों मे सिमट के कट गई इक उम्र मेरी मुझको मेरे अंदर-अंदर इक सिकंदर चाहिये था के.एस. राही
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