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तृष्णा

22 सितम्बर 2018

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मदिर प्रीत की चाह लिये हिय तृष्णा में भरमाई रे जानूँ न जोगी काहे सुध-बुध खोई पगलाई रे सपनों के चंदन वन महके चंचल पाखी मधुवन चहके चख पराग बतरस जोगी मैं मन ही मन बौराई रे "पी"आकर्षण माया,भ्रम में तर्क-वितर्क के उलझे क्रम में सुन मधुर गीत रूनझुन जोगी राह ठिठकी मैं चकराई रे उड़-उड़कर हुये पंख शिथिल नभ अंतहीन इच्छाएँ जटिल हर्ष-विषाद गिन-गिन जोगी क्षणभर भी जी न पाई रे जीवन वैतरणी के तट पर तृप्ति का रीता घट लेकर मोह की बूँदें भर-भर जोगी मैं तृष्णा से अकुलाई रे -श्वेता सिन्हा

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आलोक सिन्हा

आलोक सिन्हा

बहुत अच्छी रचना है | लिखती रहिये निरंतर , अनवरत | शुभ कामनाएं |

23 सितम्बर 2018

रेणु

रेणु

पी"आकर्षण माया,भ्रम में तर्क-वितर्क के उलझे क्रम में सुन मधुर गीत रूनझुन जोगी राह ठिठकी मैं चकराई रे!!!! प्रिय श्वेता -- लयमें बंधा ये अत्यंत सुंदर जोगी गीत मन्त्र मुग्ध कर गया | एक- एक शब्द मनभावन और बड़ा ही विद्वतापूर्ण है | इस रचना को समर्पित कुछ शब्द -------- सुनजोगन ! हुए किसके जोगी ? ये व्यर्थ लगन मत मन कर रोगी | पग जोगी के काल का फेरा - एक जगह कहाँ उसका डेरा ? कहीं दिन तो कहीं रात बिताये - बादल सा उड़ लौट ना आये | जिस जोगी संग प्रीत लगायी - करी विरह के संग सगाई !!!!!!!! इस अनुपम गीत के लिए मेरा प्यार |

22 सितम्बर 2018

Mannkepaankhi

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