ज़िन्दगी तुम मेरी
प्रिय सहेली...
रोज़
सुबह सूरज के संग, तुम भी यू आ जाती हो,
उठा
मुझे गरम बिस्तर से, काम थमा यूँ देती हो,
फिर
भी होती हूँ मैं प्रसन्न, और देती हूँ यूँ मुस्कुरा,
एक
और दिया है सुंदर दिन, जीने को तुमने ओ
प्रिया,
कभी
हुए दुखी तुमसे हम, कभी घंटो राह तकी है,
कभी
भीगे हुए नयनो में भी, तुमसे आस जगी है,
तुम
डटी रही हो जीवन में, और दिखलाये रूप हजारो हैं,
कभी
प्रेम बनी, कभी फ़र्ज़ बनी, कभी जलती रही दिया सी मैं...
हर
रूप में हुए अलग अनुभव, कुछ खट्टे, कुछ मीठे से,
अब
जाके समझे भाव तुम्हारे, और अनोखी भाषा,
अब
कडवा, मीठा, खट्टा, तीखा
सभी हमें है भाता,
और
जो भी कुछ यदि बचे हो वो, रस चखने की अभिलाषा,
अब खेलो तुम, तैयार हैं हम, और सीखे कुछ नयी परिभाषा...
अब
मौज रहे शायद दुःख मे भी, और न भरम कोई सुख मे
भी,
बस
खेल समझ के खेलेंगे और हँसते हँसते जी लेंगे,
तुम
रोज़ लिखो एक नयी कहानी, हम किताब बन जायेंगे,
तुम आना रोज़ सुबह खिड़की से, हम ज़िन्दगी तुम्हे बुलाएँगे...
एक
और मुझे दो सुंदर दिन, जीने को तुम अब ओ
प्रिया,
कभी
लगती हो तुम एक सहेली, कभी उलझी हुई एक
पहेली,
ज़िन्दगी
रहो यूँही सदा संग, और फिरे साथ यूँही गली गली,
तुम रहो यूँही सदा संग, और फिरे साथ यूँही गली गली...
By – Sneha Dev
15/12/2010