तपस्या तू बनी मील का पत्थर , देखती रही उनको, जो बढ़ते रहे लेके तुझसे, दिशा का अनुमान, तेरे होने पर भी, न था आभास तेरे होने का, तुझे भी न थी जैसे, प्रतीक्षा किसी धन्यवाद की, क्युँकी पहुँच जाएँ मंज़िल तक वो, उनकी ख़ुशी थी, तेरी खुशी … तू बनी रही मिट्टी जड़ो की, वो चढ़ते रहे परवान, कभी प्रेम लगा सिंचाई में , और कभी अरमान, तू खड़ी रही रसोई में , पर चलता रहा जहान, ना अहसास है तेरे होने का, न प्रतीक्षा धन्यवाद की, क्युँकी उनकी ख़ुशी थी, तेरी खुशी … वो उड़ते रहे पतंग बन, खुली हवा, खुला आसमान, तुम थमी रही धरती पे, चरखी और माँझा बन, वो रहे आते जाते, तू खोलती और करती रही बंद दरवाज़े, ना अहसास है तेरे होने का, न प्रतीक्षा धन्यवाद की, क्युँकी उनकी ख़ुशी थी, तेरी खुशी … पूँछा इक दिन मैंने जब, कैसे कर पाती हो सब, मुँह से कोई आह नहीं, क्या तेरी कोई चाह नहीं, संयम धीरज बाकी सब पे, क्या विश्वास तेरा है सच, कहती है, क्या पता मुझे, कुछ तो होगा यकीन उसे, जो चुना मुझे उसने है तो, सही गलत अब जाने वो, जो उसने दिया, मैंने जिया, उसकी रज़ा में मेरी रज़ा… सब अपनी जगह सही, सब अपनी जगह बुलंद है, न की तूने कोई हठ कभी , न कोई चुभन है, पर जीवन को ऐसे जीना, क्या किसी तपस्या से कम है, जीवन को ऐसे जीना, क्या किसी तपस्या से कम है… By – Sneha Dev |