काश तुम थोड़ा और ठहर जाती
काश मैं कुछ पहले समझ पाती
काश न निभाई होती फ़िज़ूल की
सामाजिक रस्में मैंने और
काश तुमने भी हर बार न समझ कर
मेरी परिस्तिथी को, थोड़ा ज़िद कर
मुझें बुलाया होता,
तुम तो बड़ी थी पता तो होगा तुमको
की तुम्हारे बाद तुम्हारा ख्याल जब जब
आएगा न जाने कितनें खोएं लमहों
की टीस, और यादोँ को उबार के लाएगा ...
लो आज भी तुमसे बहस कर ली मैंने
फिर एक बार खुद की कमी को नकार
तुम से रूठ तुमसे शिकायत कर ली मैंने
जहाँ भी होगी आज भी हंस दोगी तुम
और मेरी नादानियों को अपने आँचल में
प्यार से समेट लोगी तुम...
फिर भी काश तुम थोड़ा और ठहर जाती
मैं कुछ और पहले तेरे होने को समझ पाती ...
स्नेहा देव - 14/5/2017