‘बाबूजी’…
कभी था स्तम्भ एक गर्वित सा, जो जीवन पथ पर डटा हुआ,
हर एक पल जिसके जीवन का था, संघर्ष से भरा हुआ,
फिर भी दिखा न हमें कभी उसके माथे कोई मलाल,
या समय नहीं था रुकने का, और उठा सके कोई सवाल,
अनजाने ही में ये सब उसने सिखा दिया था हमको भी,
तो क्या मलाल और क्या सवाल, शब्दावली में यह थे ही नहीं…
सब जग उसने घूम लिया, पर जुड़ा रहा सदा धरती से,
वो गहरी सांस सदा उसने, आके ली अपने ही घर पे ,
सुनाये किस्से सब जग के हमें, और कहा हमें जाना,तुम भी
पर सिखा दिया बांतो बांतो ही, ना कोई जगह अपने घर सी,
नहीं खुद पर कुछ भी खर्च किया, कुछ मिला भी तो बाँट दिया,
इच्छा क्या हमें पता नहीं था, ज़रुरत फिर भी मालूम सी थी…
हाँ करा दिया अनुमान तो इतना, कि पढ़ लेंगे तो उड़ लेंगे,
और ध्यान धरेंगे, प्रीत करेंगे, चाहेंगे तो कर लेंगे,
धीरज से क्या हो सकता है, यह हमें उन्ही ने सिखलाया,
मज़बूत बने हम अंदर से, यह सबक उन्ही ने पढ़वाया,
वोह खड़े रहे छाया बन कर, और हमें कहा तुम चले चलो,
हम देख रहे है तुम्हे सदा, जब धूप लगे तब आ जाना,
और बैठ हमारी छाया में, तुम जीवन कुछ सिखला जाना…
अब जीवन संध्या है उनकी, और चलना फिरना दूभर है,
फिर भी खुश है देख हमें, की हम तो उड़ते फिरते है,
पर रखते है हम पंख उन्ही के, यह सदा है याद हमें,
और आज भी जीवन में धूप बढ़े तो, उन्ही की तरफ हम मुड़ते है,
अब शब्दों के मोहताज़ नहीं, हम मौन को समझा करते है,
बाबूजी आप लाख रहे ख़ामोश तो क्या, हम एकाकीपन पढ़ते है…
हम दूर सही मजबूर सही, पर दिल से बिलकुल
दूर नहीं,
यह सुंदर जीवन हमें दिया, आभार के लिए अब
शब्द नहीं,
सदा छाया आपकी साथ रहे, और सर पर आपका हाथ
रहे,
दिन रात प्रभु से हम अपने, बस इसी की माला जपते है....
बस इसी की माला जपते है…
Dedicated to my
father with all my love for him…
By – Sneha Dev
(9/12/2010)