न बरसाओ ऐ बादल तुम नीर
इसमे खोने को जी चाहता है,
खोये है हमने अश्रु के मोती
जो बह गये है पानी के जैसे,
बिखर गयीं है ओश की बूदें
कल शाम थी यहाँ घास सूखी,
हो आज वही स्वछन्द वातावरण
न फैले तिमिर का कोई अंश
फिर वही खुला आसमान चाहता हूँ|
न फैले गंदगी का कोई कंटक
चुभना उसका आसान नहीं,
आज जो फैला है यहाँ पर
बहती थी यहाँ कोई धार तोय की
फिर वही बहती सरिता चाहता हूँ |
जब गुजरता हूँ मैं उस गली से
हवा छूकर के गुजर जाती है,
देती थी तुम जब आवाज मुझे
गूंजती थी वह बहुत धीरे स्वर में
फिर वाही मधुर सदा चाहताहूँ |