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गोडसे पर प्रपंच

28 जनवरी 2015

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खूनी गोड्से के लिए मन्दिर ? अचरज नहीं होता। इस देष में श्रावण पंचमी पर विषघर को दूध पिलाते हैं। नोयडा क्षेत्र में दषंकघर का ननिहाल था अतः वहां रावण के प्रषंसक मिल जाते हैं। असंख्य हिन्दुओं की लाषों का अम्बार लगा देनेवाले मोहम्मद अली जिन्नाह के समर्थक आज भी अवधप्रान्त में दिख जाते हैं। बस बापू के लिए कोई लड़ाका नहीं नजर आता है। वर्ना खुल्लम खुल्ला गत सदी के जघन्यतम हत्यारे को नामलेवा न मिलता। आखिर कैसा, कौन और क्या था, नाथूराम विनायक गोड्से ? क्या वह चिंतक था, ख्यातिप्राप्त राजनेता था, हिंदू महासभा का निर्वाचित पदाधिकारी था, स्वतंत्रता सेनानी था? इतनी ऊंचाइयों के दूर-दूर तक भी नाथूराम गोड्से कभी पहुंच नहीं पाया था। पुणे शहर के उसके पुराने मोहल्ले सदाषिव पेठ के बाहर उसे कोई नहीं जानता था, जबकि तब वह चालीस की आयु के समीप था। नाथूराम स्कूल से भागा हुआ छात्र था। नूतन मराठी विद्यालय में मिडिल की परीक्षा में फेल हो जाने पर उसने पढ़ाई छोड़ दी थी। उसका मराठी भाषा का ज्ञान बडे़ निचले स्तर का था। अंग्रेजी का ज्ञान तो था ही नहीं। जीविका हेतु उसने सांगली शहर में दर्जी की दुकान खोल ली थी। उसके पहले वह बढ़ई का काम करता था। फलों का ठेला भी लगा चुका था। उसके पिता विनायक गोड्से डाकखाने में बाबू थे, मासिक आय पंाच रुपए थी। नाथूराम अपने पिता का लाड़ला था क्योंकि उसके पहले जन्में सभी पुत्र मर गये थें। इसीलिए अंधविष्वास से मां ने नाथूराम को बेटी की भांति पाला। नाक में नथ पहनाई जिससे नाम नत्थूराम पड़ गया। उसकी आद्दतें और हरकते भी औरतों जैसी हो गई। नाथूराम के बाद 70 एक पत्रकार की राजनीतिक विचार-यात्रा तीन और पैदा हुए थे जिनमें था गोपाल, जो नाथूराम के साथ सह-अभियुक्त था। गोपाल ने लिखा था कि अग्रज विनायक अजीब सा तांत्रिक अनुष्ठान करता था। एक तांबे की प्लेट ऊपर काजल पोतकर, दो दिए जलाकर नाथूराम पास जमा भीड़से सवाल पूछने को कहता था। फिर उस प्लेट को देखता था मानो कोई पारलौकिक शक्ति उत्तर लिख रही हो। उसके आसपास जमा भीड़ उसके द्वारा पढ़ी गई बातों पर भरोसा करती थी। उसे सिद्ध मानती थी। नाथूराम की युवावस्था किसी खास घटना अथवा विचार के लिए नहीं जानी जाती है। उस समय उसके हमउम्र के लोग भारत में क्रांति का अलख जगा रहे थे। शहीद हो रहे थे। इस स्वाधीनता संग्राम की हलचल से नाथूराम को तनिक भी सरोकार नहीं था। अपने नगर पुणे में वह रोजी-रोटी के ही जुगाड़ में लगा रहता था। पुणे में मई 1910 में जन्मे नाथूराम के जीवन की पहली खास घटना थी अगस्त 1944 में जब हिंदू महासभा नेता एल.जी. थट्टे ने सेवाग्राम में धरना दिया था। तब महात्मा गांधी भारत के विभाजन को रोकने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना से वार्ता करने मुंबई जा रहे थे। चैंतीस वर्षीय अधेड़ नाथूराम उन प्रदर्शनकारियों में शरीक था। उसके जीवन की दूसरी घटना थी एक वर्ष बाद, जब ब्रिटिश वायसराय ने भारत की स्वतंत्रता पर चर्चा के लिए राजनेताओं को शिमला आमंत्रित किया था तब नाथूराम पुणे के किसी अनजान पत्रिका के संवाददाता के रूप में वहां उपस्थित था। जो लोग नाथूराम गोड्से को प्रशंसा का पात्र समझते हैं, उन्हें खासकर याद करना होगा कि गांधीजी की हत्या के बाद जब नाथूराम के पुणे आवास तथा मुंबई के मित्रों के घर पर छापे पडे़ थे तो मारक अस्त्रों का भंडार पकड़ा गया था जिसे उसने हैदराबाद के निजाम पर हमला करने के नाम पर बटोरा था। यह दीगर बात है कि इन असलहों का प्रयोग कभी नहीं किया गया। मुंबई और पुणे के व्यापारियों से अपने हिंदू राष्ट्र संगठन के नाम पर नाथूराम ने अकूत धन वसूला था जिसका कभी लेखा-जोखा तक नहीं दिया गया। बारीकी से परीक्षण करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि कतिपय हिंदू उग्रवादियों द्वारा नाथूराम भाड़े पर रखा गया हत्यारा था। जेल में उसकी चिकित्सा रपटों से ज्ञात होता है कि उसका मस्तिष्क अधसीसी के रोग से ग्रस्त था। यह अड़तीस वर्षीय बेरोजगार, अविवाहित और दिमागी बीमारी से त्रस्त नाथूराम किसी भी मायने में मामूली मनःस्थिति वाला व्यक्ति नहीं हो सकता। उसने गांधी की हत्या का पहला प्रयास जनवरी 20, 1948 को किया था। उसके सहअभियुक्त मदनलाल पाहवा से मिलकर नई दिल्ली के बिड़ला भवन पर बम फेंका था, जहां गांधीजी प्रार्थना सभा कर रहे थे। बम का निशाना चूक गया। पाहवा पकड़ा गया, मगर नाथूराम भाग गया और मुंबई में छिप गया। दस दिन बाद अपने अधूरे काम को पूरा करने को वह दिल्ली आया था। तीस जनवरी की संध्या की एक घटना से साबित होता है कि नाथूराम कितना धर्मनिष्ठ हिंदू था। हत्या के लिए तीन गोलियां दागने के पूर्व, वह गांधीजी की राह रोकर खड़ा हो गया था। पोती मनु ने नाथूराम को हटने के लिए आग्रह किया क्योंकि गांधीजी को प्रार्थना के लिए देरी हो गई थी। इस धक्का-मुक्की में मनु के हाथ से पूजा वाली माला और आश्रम भजनावाली जमीन पर गिर गईं। उसे रौंदता हुआ नाथूराम आगे बढ़ा गत सदी का घोरतम अपराध करने। उसका मकसद कितना पैशाचिक रहा होगा, इसका अनुमान इस बात से लग जाता है कि हत्या के बाद पकड़े जाने पर खाकी निकट पहने नाथूराम ने अपने को मुसलमान दर्शाने की कोशिश की थी। अर्थात एक तीर से दो निशाने सध जाने। गांधी की हत्या हो जाती, दोष मुसलमानों पर जाता और उनका सफाया शुरू हो जाता। ठीक उसी भांति जो 1984 के अक्टूबर 31 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के साथ हुआ था। न जाने किन कारणों से अपने राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नहेरू ने नहीं बताया कि हत्यारे का नाम क्या था। तुरंत बाद आकाशवाणी भवन जाकर गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने देशवासियों को बताया कि महात्मा का हत्यारा एक हिंदू था। सरदार पटेल ने मुसलमानों को बचा लिया। जो लोग अभी भी नाथूराम गोड्से के प्रति थोड़ी नरमी बरतते हैं उन्हें इस निष्ठुर क्रूर हत्यारे के बारे में तीन प्रमाणित तथ्यों पर गौर करना चाहिए। प्रथम, गांधीजी को मारने के दो सप्ताह पूर्व नाथूराम ने अपनी जीवन को काफी बड़ी राशि के लिए बीमा कंपनी से सुरक्षित कर लिया था। उसकी मौत के बाद उसके परिवारजन इस बीमा राशि से लाभान्वित होते। एक कथित ऐतिहासिक मिशन को लेकर चलने वाला व्यक्ति बीमा कंपनी से हर्जाना कमाना चाहता था। मृत्युदंड से बचने के लिए नाथूराम के अधिवक्ता ने दो चश्मदीद गवाहों के बयानों में विरोधाभास का सहारा लिया। उनमें से एक ने कहा कि पिस्तौल से धुआं नहीं निकला था। दूसरे ने कहा कि गोलियां दगीं और धुआं निकला था। नाथूराम की पिस्तौल से धुआं नहीं निकला था, अतः हत्या किसी और की पिस्तौल से हो सकती है। माजरा कुछ बंबइयां फिल्मों जैसा रचने का एक भोंडा प्रयास था। संदेह का लाभ पाकर नाथूराम छूट जाता। जेल के भीतर सुविधाओं की नाथूराम ने मांग की हालांकि उसे स्नातक व पर्याप्त शिक्षित न होने के कारण पंजाब जेल नियम संहिता के अनुसार साधारण कैदी की तरह रखा जाना चाहिए था। देश के हर शहीद ने अंग्रेजी जेलों में विशिष्ट सुविधाओं को मांगना तो दूर, उनका तिरस्कार किया था। अपने मृत्युदंड के निर्णय के खिलाफ नाथूराम ने लंदन की प्रिवी कांउसिल में अपील की थी। तब भारत स्वाधीन हो गया था। फिर भी नाथूराम ने ब्रिटेन के हाउस आॅफ लार्ड्स की न्यायिक पीठ से सजा-माफी की अभ्यर्थना की थी। अंग्रेज जजों ने उसे अस्वीकार कर दिया था। उसके भाई गोपाल गोड्से ने जेल में प्रत्येक गांधी जयंती में बढ़-चढ़कर शिरकत की, क्योंकि जेल नियम में ऐसा करने पर सजा की अवधि में छूट मिलती है। गोपाल पूरी सजा की अवधि के पहले ही रिहाई पा गया था। पुणे के निकट खड़की उपनगर के सेना मोटर परिवहन विभाग में एक क्लर्क था गोपाल गोड्से, जो जिरह के दौरान गांधी हत्या से अपने को अनजान और निर्दोष बताता रहा। अदालत ने उसे आजीवन कारावास दिया। मगर जल्दी रिहा होकर, पुणे के अपने सदाशिवपेठ मोहल्ले से गोपाल गुर्राता था कि उसका भाई नाथूराम शहीद है और स्वयं को वह एक राष्ट्रभक्त आंदोलनकारी की भूमिका में पेश कर रहा है। उसने बेझिझक कहा था कि एक अधनंगे, बलहीन, असुरक्षित बूढे़ की हत्या पर उसे पश्चाताप अथवा क्षोभ नहीं है। नाथूराम गोड्से के साथ जिसे फांसी दी गई थी वह था नारायण आप्टे निकटतम मित्र और सहधर्मी। ब्रिटिष वायुसेना में नौकर आप्टे पहले गणित का अध्यापक था और एक इसाई छात्रा मनोरमा सालवी को कुंवारी माँ बनाकर छोड़ गया। हालांकि उसकी पत्नी और विकलांग पुत्र भी था। शराबप्रेमी आप्टे के जीवन की यादगार वारदात थी कि उसके अदालती रपट के अनुसार 29 जनवरी 1948 की रात उसने पुरानी दिल्ली के वेष्यालय में गुजारी अगली शाम को बापू की हत्या हुई। उन दिनों एक अत्यंत महत्वपूर्ण विवाद भी उठा। जिसका गांधीजी की हत्या से सीधा नाता था। तब देश-विदेश के समाचारपत्र खबरों तथा अफवाहों से भरे पड़े थे कि प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू तथा उप-प्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल में मतभेद गहरे हो रहे हैं। दोनों राष्ट्रनेताओं को समीप लाने हेतु महात्मा गांधी ने जनवरी 30 की दोपहर चार बजे सरदार पटेल को बातचीत के लिए बुलवाया था। प्रार्थना सभा के बाद उसी शाम सात बजे नेहरू को बुलवाया था। फिर दोनों नेता एक साथ गांधीजी से भेंट करने वाले थे। पहले तो गांधीजी की राय बनी थी कि मतभेद की तीव्रता की दृष्टि से दो में किसी एक को पद से त्यागपत्रा दे देना चाहिए। मगर गांधीजी ने महसूस किया कि स्वतंत्रता के चंद महीनों में ऐसा राजनीतिक निर्णय राष्ट्र को संकट में डाल देगा। अतः नेहरू और पटेल को देशहित में एकता बनाए रखनी पड़ेगी। जनवरी 30 के दिन ही पत्रकार शंकर घोष तथा निजी सहायक प्यारेलाल नय्यर ने गांधीजी का ध्यान लंदन टाइम्स दैनिक के अग्रलेख की ओर आकृष्ट किया था जिसमें नेहरू-पटेल के मतभेद से नवस्वाधीन भारत पर पड़ने वाली विपत्ति का संकेत था। यह तय था कि यदि नेहरू और पटेल एक हो जाते तो उस दौर के हिंदू उग्रवादी राजसत्ता हथियाने के प्रयास में सफल न होते। तब विभाजन तथा पाकिस्तान के पंजाब और सिंध से भागकर आए हिंदू शरणार्थी इन हिंदू उग्रवादियों के लिए बारूद बन रहे थे। जनमत भी मुसलमानों के विरूद्ध था। बस चिनगारी लगाने वाला चाहिए था। उस समय दिग्भ्रमित सोशलिस्ट भी सरदार पटेल को हिंदू उग्रवादियों का पोषक मान रहे थे। वह दौर था जब नेहरू और इन सोशलिस्टों में हनीमून जैसा रिश्ता था। हालांकि दो दशकों बाद लोकनायक जयप्रकाश नारायण और डाक्टर राममनोहर लोहिया ने सार्वजनिक रूप से स्वीकारा था कि पटेल का विरोध करना तथा नेहरू का पक्ष लेना एक ऐतिहासिक भूल थी। बस इन्हीं कारणों से हिंदू उग्रवादियों के हित में था कि महात्मा गांधी को खत्म कर दिया जाए ताकि केंद्रीय काबीना बट जाए, पटेल भी नेहरू से किनारा कर लें। फिर हिंदू उग्रवादी सरदार पटेल को अपना कायदे-आजम बना लें। लेकिन महात्मा गांधी की हत्या का परिणाम ही भिन्न हुआ। नेहरू और पटेल एक हो गए, जैसे पिता के निधन पर पारिवारिक विग्रह समाप्त हो जाता है। अपनी मृत्यु से महात्मा गांधी ने अपने ध्येय को हासिल कर लिया, जिसे वे जीते जी नहीं पा सके थे। अगले तीन वर्षों तक नेहरू तथा पटेल साथ रहे। फिर पटेल का निधन हो गया। पुणे के सदाशिव पेठ वाले मोहल्ले में नवंबर 15 को गोपाल गोड्से छोटा सा पर्व मनाता था। लेकिन क्या विडंबना है कि गांधीजी को मुस्लिम पक्ष माननेवाले गोड्से ने अपने पुणे के मकान का नम्बर 786 रखा। मायने है: ”बिस्मिल्ला हिर्ररहमान निर रहीम।“ इसी तारीख को हत्यारे नाथूराम को फंासी दी गई थी। ये सिरफिरे जन भूल जाते हैं कि गांधीजी मृत्यु से कभी नहीं डरे। उन पर सात बार हत्या का हमला हुआ था। जब जनवरी 20, 1948 के दिन मदनलाल पाहवा ने उन पर बम फेंका था, तो राजकुमारी अमृत कौर की परेशानी देखकर गांधीजी बोले, ‘मैं समझा कि पड़ोस में कहीं भारतीय सेना के जवान अपना शस्त्र अभ्यास कर रहे हैं।’ गांधीजी ने पाहवा की रिहाई की अपील भी की थी। दक्षिण अफ्रीका के डर्बन शहर में 1897 में नस्लवादी गोरों ने गांधीजी की हत्या करने की साजिश की थी, फिर भी गांधीजी सामाजिक समानता का आंदोलन चलाते रहे। पुणे की एक आम सभा के मार्ग पर गांधीजी पर कुछ हिंदू सवर्णों ने उनके अस्पृश्यता-उन्मूलन अभियान से नाराज होकर 1908 में बम फेंका था। फिर 1947 से सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिए उनका इक्कीस दिवसीय अनशन तो प्राणघातक बन गया था। उन्हें उनके राम ने हर बार बचाया। कुछ लोग नाथूराम गोड्से को उच्चकोटि का चिंतक, ऐतिहासिक मिशन वाला पुरुष तथा अदम्य नैतिक ऊर्जा वाला व्यक्ति बनाकर पेश करते हैं। उनके तर्क का आधार नाथूराम का वह दस-पृष्ठीय वक्तव्य है जिसे उसने बड़े तर्कसंगत, भरे भावना शब्दों में लिखकर अदालत में पढ़ा था कि उसने गांधीजी क्यों मारा ? इस बयान में गोड्से दो झूठ भी कहे थे कि गांधीजी गौवध का विरोध नहीं करते थे और अंग्रेजी के पक्षधर थे। उस समय दिल्ली में ऐसे कई हिंदूवादी थे जिनका भाषा पर आधिपत्य, प्रवाहमयी शैली का अभ्यास तथा वैचारिक तार्किकता का ज्ञान पूरा था। उनमें से कोई भी नाथूराम का ओजस्वी वक्तव्य लिखकर जेल के भीतर भिजवा सकता था। जो व्यक्ति मराठी भी भलीभांति न जानता हो, अंग्रेजी से तो निरा अनभिज्ञ हो, उस गोड्से की असलियत कैसे कमजोर छात्र जैसी थी जो परीक्षा में अचानक सौ बटा सौ नवंबर ले आए? संभव है? हम भारतीय अपनी दोमुखी छलभरी सोच को तजकर, सीधी, सरल बात करना कब शुरू करेंगे, कि हत्या एक जघन्य अपराध और सिर्फ नृशंस हरकत है। वह भी एक वृद्ध, लुकाटी थामे, अधनंगे, परम श्रद्धालु हिंदू की जो राम का अनन्य, आजीवन भक्त रहा।

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