कमरा बिल्कुल साधारण सा था। चार दीवारों से घिरे इस कमरे में बस पीछे वाली दीवार पर एक खिड़की थी, जो हमेशा खुली रहती थी। शायद उसकी चिटकनी खराब हो गयी थी या फिर शायद वो इतनी छोटी थी कि उसकी तरफ़ अर्जुन का ध्यान ही नहीं जाता था । उससे न ही ज्यादा रौशनी आती थी और न ही हवा; पर खिड़की के उस तरफ़ कोई एक कोयल थी, जो कूक लगाती और इंतज़ार करती की कोई उसके सुर से सुर मिला के कूक लगाये। अर्जुन जब से इस कमरे की कहानी का हिस्सा बना था, तब से वो इस कूक को सुनता आया था। खिड़की इतनी ऊपर और छोटी थी कि उसे कभी कोयल दिखायी नहीं दी। वो हमेशा से उसकी कूकने की आवाज में सुर-से-सुर मिलाना चाहता था, लेकिन अब उसे किसी का साथ देने से डर लगता था। किसी का साथ देना ख़ुद को कमज़ोर करना है। उसने दीवार पर टँगी पुरानी घड़ी की ओर देखा । सुबह के साढ़े नौ बज रहे थे। दफ्तर का रास्ता दस मिनट का था। वो समय से पहले तैयार हो गया था। उसने कमरे की तरफ फिर नज़र दौड़ायी। अबकी बार भी उसे कुछ नया नहीं मिला। दीवारों पर हुई चूने की पुताई लगभग अपना रंग छोड़ चुकी थी। पिछली कई बरसातों से छत से पानी की धारें दीवारों के सहारे ज़मीन तक आ चुकी थीं। दीवारों पर पड़ी पपड़ियाँ किसी बूढ़े आदमी की झुर्रियों के जैसी थीं। पुराना पंखा उम्र से अधिक जी रहा था। उससे निकली हवा कमरे के बाहर से आ रही हवा में कहीं खो जा रही थी । वही फोलडिंग चारपाई, जो अब फोल्ड नहीं हो सकती थी। कील निकली हुई वही पुरानी मेज, जिसमें उसकी नीली पैण्ट फँस के फट गयी थी और एक बूढ़े टेलर ने आसमानी रंग के धागे से उसको रफ़ू कर दिया था। वो जब भी उस पैण्ट को पहनता है तो अपनी नीली पेन से उस रफ़ू को भी नीला कर देता है। कमरे के कोने में रखे घड़े पर जाने किस फूल की कारीगरी की गयी थी, जिसे वो कभी पहचान नहीं पाया था। कमरे के बाहर खुली छत थी, एकदम फैले हुए मैदान के जैसी ऊपर केवल एक कमरे का होना स्टोर रूम माना जाता है शायद ये इसीलिए बनाया गया होगा। पूरी छत पर धूप फैली थी। दिन चढ़ने के साथ-साथ कमरे में उमस भी बढ़ रही थी। अर्जुन ने दोनो हाथों से चारपाई के पाये को बल दिया और खड़ा हो गया। दरवाज़े पर ताला लगाया और दफ्तर को निकल गया।
हर रोज़ की तरह क़दम तो रास्ते पर थे, पर आँखें लोगों के चेहरे पर थीं। आज फिर वो चेहरे तलाशने में लगा था। कुछ चेहरे जाने-पहचाने लगते, जो दो महीने से दिख रहे थे। कुछ रोज़ दिखते, कुछ हफ़्ते में, कुछ महीने में और कुछ एक बार दिख के अभी तक दोबारा कभी नहीं दिखे। वो उनके चेहरों पर दर्द तलाशता । जिनके चेहरे पर ये न मिलता, उनकी आँखों में देखता । दर्द सब लिये बैठे थे; कोई मुस्कराहट से छुपाये बैठा था तो कोई अपनी चुप्पी से। जो न छुपा पाता, अर्जुन उनकी आँखों से देख लेता पर कभी उसे अपने दर्द से ज्यादा दर्द वाला नहीं मिला। कॉलोनी के सबसे आखिरी घर से निकल के वो कॉलोनी पार कर चुका था। मुख्य सड़क पर दोनों तरफ दुकानें सजी थीं। कहीं शीरे से भरे कड़ाहे में से जलेबी की पहली घान निकल रही थी, कहीं किसी ठेले पर आधी कच्ची-पक्की कचौड़ियाँ, नवरंग अचार के साथ थाली में परोसी जा रही थीं, वहीं कोई एक भिखारन फटे चीथड़े कपड़ों में किसी साड़ी के शोरूम के बाहर सेल्समेन से भूखे पेट को भरने की दुहाई कर रही थी, लेकिन वो प्लास्टिक के पुतले को रेशमी साड़ी से उसकी इज़्ज़त ढकने में मगन था। मंदिर में बज रही आरती से कहीं ज्यादा तल्लीनता फेरीवाले की आवाज में लग रही थी। कुछ आगे बढ़ने पर बाज़ार से बाहर शराब के ठेके पर कोई अपने दर्द को गिलास में घोलने वाला भी मिला। अर्जुन चलते-चलते एक पल के लिए ठिठका । उसने उस आदमी को पहले कभी नहीं देखा था, लेकिन उसके चेहरे का भाव जाना-पहचाना लग रहा था। ये उसके ठहरने के लिए सही जगह नहीं थी इसलिए वो आगे बढ़ गया। मई महीने की गर्मी उसके शरीर में चढ़ रही थी। उसे पता था कि कौन-सी छाँव में उसे आराम मिलेगा। उसका दफ्तर एक बैंक था जो कि टाउन से थोड़ा बाहर था। बैंक के बाहर एक बड़ा नीम का पेड़ था। उसकी लम्बी और घनी छाँव से गुजरते हुए अर्जुन ने खुद को पहाड़ों की उन सड़कों पर पाया, जहाँ बादल साथ-साथ चल रहे होते हैं। जब वो बैंक के अन्दर पहुँचा तो समय पंद्रह मिनट पीछे पहुँच चुका था। बैंक की घड़ी में 9.45 हो रहे थे। अर्जुन ने कलाई को घुमा के अपनी घड़ी देखी। उसमें ठीक दस बजे थे। तिवारी जी के लिए समय अभी 9.45 ही हुआ था, वो 10.00 बजे तक ही बैंक आते थे, मतलब सही समय 10.15 पर । नाथमूर्ति तिवारी जी अधिकारी पद पर यहाँ दो साल से हैं। अर्जुन पिछले दो महीने से यही समय देखता आ रहा है। तिवारी जी आते ही थे पन्द्रह मिनट देरी से लेकिन कहीं ग्राहक को ये न लगे कि वो देरी से आये हैं, इसीलिए उन्होंने घड़ी के पन्द्रह मिनट ही पीछे करवा दिये। उपस्थिति रजिस्टर में दर्ज हमेशा 9.55 करते हैं। पिछले हफ्ते ही उन्होंने अर्जुन को समय पर लम्बा-चौड़ा भाषण दिया था। अर्जुन अब तक अपनी कुर्सी सँभाल चुका था। समय के बारे में सोचते-सोचते वो समय के व्यूह में खो गया।