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1 - काँपते हाथोंवाला व्यक्ति

7 अप्रैल 2023

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पुलवामा, दक्षिण कश्मीर, 14 फरवरी, 2019

पुलवामा जिले के हाजीबल में गड्ढों से भरी सड़क पर नीली कार हिचकोले खा रही थी। उसने कुछ ही मिनट बाद, तीन बजे के करीब, झेलम नदी पर बने छोटे पुल को पार किया। कार के ड्राइवर नौजवान शाकिर बशीर की उम्र बीस के लगभग रही होगी। उसने अपने साथ बैठे यात्री आदिल अहमद डार को देखा। ठार भी उसका ही हमउम्र था और वह सामने देखते हुए धीमे स्वर में कुछ बुदबुदा रहा था। ड्राइवर ने पहचान लिया कि आदिल कुरान की आयतें पढ़ रहा था।

शाकिर पुल पार करने के बाद रुका। फिर वह नीचे उतरा और कार के दूसरी ओर चला गया। उसका दोस्त भी उतरा और दोनों ने आपस में जगह बदल ली। उसके बाद डार कार को चलाकर आगे ले गया।

तीन बजकर दस मिनट के आसपास, वे अपने सामने उस नेशनल हाईवे को देख सकते थे, जो कश्मीर घाटी को बाकी भारत से जोड़ता

था।

डार ने दाईं ओर मोड़ काटा और उस सँकरी लिंक रोड पर कार चलाता रहा, जो हाईवे के साथ-साथ चल रही थी। एक मील तक कार चलाने के बाद वे एक ऐसी जगह रुके, जहाँ से वे यू-टर्न लेकर फिर से हाईवे पर आ सकते थे।

" अल्लाह हाफिज!" शाकिर ने कहा। वे दोनों गले मिले। डार कार में वापस बैठा और दोस्त को वहीं छोड़ दिया। ज्यों ही उसने चावी घुमाई, तो जैकेट की जेब को थपथपाया, पिस्तोल सही जगह पर थी। उसके दोस्त ने उसे हाथ हिलाकर विदा दी और हाईवे पर तेजी से कार दौड़ाते हुए श्रीनगर की ओर रवाना हो गया।

दोनों आदमी नीचे उतरे और आमने-सामने खड़े हो गए। डार के हाथ काँप रहे थे, वह उन्हें काबू करने की कोशिश में था। उसने अपनी इलेक्ट्रॉनिक कलाई घड़ी उतारकर दोस्त को दे दी, जिसे वह हमेशा पहने रखता था।

"यह तुम्हें मेरी याद दिलाती रहेगी," उसने कहा । "मुझे अपनी दुआओं में याद रखना।” “अल्लाह हाफिज!” शाकिर ने कहा। वे दोनों गले मिले। जार कार में वापस बैठा और दोस्त को वहीं छोड़ दिया। ज्यों ही उसने चाबी घुमाई, तो जैकेट की जेब को थपथपाया, पिस्तौल सही जगह पर थी। उसके दोस्त ने उसे हाथ हिलाकर विदा दी और हाईवे पर तेजी से कार दौड़ाते हुए श्रीनगर की ओर रवाना हो गया।

बस में सी.आर.पी.एफ. (केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल) के कांस्टेबल एच. गुरु को अपनी पत्नी कलावती की याद आ रही थी— अभी विवाह हुए छह माह ही तो हुए थे।

गुरु की बस उसी सिपाहियों के कारवाँ का हिस्सा थी, जो उस दिन अलसुबह जम्मू से साढ़े तीन बजे चला था। कारवों में सेना अधिकारियों को जम्मू से श्रीनगर ले जाया जा रहा था, जिनके बीच लगभग तीन सौ कि.मी. की दूरी थी। वे लोग हमेशा सुबह के समय ही यात्रा आरंभ करते थे, ताकि काजीगुंड से श्रीनगर का रास्ता रोशनी रहते पूरा हो जाए। वहीं से कश्मीर घाटी शुरू होती थी। उस इलाके के बाद सुरक्षा बलों पर आतंकवादी हमलों की आशंका और बढ़ जाती थी।

विवाह के बाद गुरु अपना नया घर बनाने में जुटा था। लगभग पंद्रह दिन पहले वह कर्नाटक के मांड्या जिले में परिवार के साथ समय बिताने गया था। वह तीन दिन पहले ही, 11 फरवरी को ड्यूटी पर वापस आया, पर उसे बर्फ हटने तक जम्मू में ही इंतजार करना पड़ा, ताकि यातायात बहाल हो सके।

उस दिन सी.आर.पी.एफ. का किाफला आम दिनों के मुकाबले बड़ा था। उसमें अठहत्तर वाहन थे, जिनमें अधिकतर बसें थीं, जो 2,547 अधिकारियों को ले जा रही थीं। पिछले पूरे सप्ताह बर्फबारी के चलते जम्मू-श्रीनगर हाईवे बंद रहा, इसलिए आज सभी सैनिकों को भेजा गया था। जम्मू के सैनिक शिविर खचाखच भर गए थे। गुरु जैसे और भी बहुत से सिपाही भारत के अलग-अलग हिस्सों से कश्मीर घाटी में अपने ड्यूटी स्टेशनों की ओर जानेवाले थे।

विवाह के बाद गुरु अपना नया घर बनाने में जुटा था। लगभग पंद्रह दिन पहले वह कर्नाटक के मांड्या जिले में परिवार के साथ समय बि- ताने गया था। वह तीन दिन पहले ही 11 फरवरी को ड्यूटी पर वापस आया, पर उसे बर्फ हटने तक जम्मू में ही इंतजार करना पड़ा, ताकि यातायात बहाल हो सके।

उसी दिन, गुरु ने अपनी माँ से बात की थी और अब वह अपनी पत्नी से भी बात करना चाह रहा था। गुरु ने मोबाइल निकालकर कलावती का नंबर मिलाया। फोन की घंटी बजती रही, पर उसने फोन नहीं उठाया। शायद घर के किसी कामकाज में लगी थी।

गुरु तैंतीस साल का जवान था, जो 2011 में सी.आर.पी.एफ. का हिस्सा बना। उसकी पहली नियुक्ति पूर्वी भारत के झारखंड में माओवा- दीग्रस्त क्षेत्रों में से एक में हुई। उसे एक साल पहले, 2018 में ही कश्मीर भेजा गया था।

यह भारत में किसी भी बगावत के मंच से सबसे अधिक जान-माल की क्षति थी। उन इलाकों का मौसम नम था और बेरकों के अंदर की हालत तो और भी खस्ता थी। मलेरिया का प्रकोप बना रहता और सैकड़ों सिपाही इसके शिकार हुए। उन दिनों सी. आर. पी. एफ. के जवान को एल. डब्ल्यू.ई. की तुलना में कश्मीर नियुक्ति कहीं बेहतर लगती थी।

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बहावलपुर का शातिर प्रेमी: पुलवामा अटैक केस कैसे सुलझा
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बहावलपुर का शातिर प्रेमी: पुलवामा अटैक केस कैसे सुलझा राहुल पंडिता की खोजी पत्रकारिता का एक असाधारण नमूना है। पुस्तक आतंकवादी संगठनों के आंतरिक कामकाज और उनकी कार्यप्रणाली की एक दुर्लभ झलक प्रदान करती है। विस्तार पर लेखक का ध्यान और बिंदुओं को जोड़ने की उसकी क्षमता एक रोमांचक पढ़ने के लिए बनाती है। फरवरी 2019 में कश्मीर के पुलवामा में हुआ आतंकी हमला भारत पर हुए सबसे भीषण आतंकी हमलों में से एक था, जिसमें चालीस भारतीय सैनिक शहीद हो गए। लेकिन जब एन.आई.ए. ने बम धमाके की जाँच शुरू की तो उन्हें कोई सुराग नहीं मिल रहा था। इस दुस्साहसी हमले के असली मास्टरमाइंड कौन थे? इसका पता लगाना असंभव सा लग रहा था। रोमांचकारी और गहन जानकारी से भरी इस पुस्तक में पुरस्कृत लेखक और पत्रकार राहुल पंडिता बताते हैं कि अपराध की जानकारी जुटाने में माहिर एन.आई.ए. टीम ने किस प्रकार एक-एक कर सारी पहेलियों को सुलझाया। तमाम मुश्किलों के बावजूद उन्होंने अनुच्छेद 370 निरस्त किए जाने के दौरान नजरबंद किए गए एक उपद्रवी, मुठभेड़ में मारे गए एक आतंकवादी के वासनापूर्ण संदेशों से भरे मोबाइल फोन और खुद पुलवामा हमले के बीच की कडिय़ों को जोडऩे में सफलता प्राप्त की। यह पुस्तक कश्मीर और हाल के दिनों में आतंकवाद पर लिखी गई सबसे महत्त्वपूर्ण कृतियों में से एक है, जिसमें पुलवामा केस, उसके प्रतिकार स्वरूप हुए बालाकोट अटैक और आतंकी समूहों की रहस्यमय दुनिया के बारे में ऐसी जानकारी है, जो पहले कभी प्रकाशित नहीं हुई।

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