हिंदुत्व क्या है ?
हिन्दुत्व' धर्म का पर्यायवाची है, जो भारत वर्ष में प्रचलित उन सभी आचार-विचारों, व्यक्ति और समाज में पारस्परिक सामाजिक समरसता, संतुलन तथा मोक्ष प्राप्ति के सहायक तत्वों को स्पष्ट करता है। यह एक जीवन-दर्शन और जीवन पद्धति है जो मानव समाज में फैली समस्याओं को सुलझाने में सहायक है। अभी तक हिन्दुत्व को मजहब के समानार्थी मानकर उसे गलत समझा गया था, उसकी गलत व्याख्या की गई, क्योंकि मजहब मात्र पूजा की एक पद्धति है जबकि हिन्दुत्व एक दर्शन है जो मानव जीवन का समग्रता से विचार करता है। समाजवाद और साम्यवाद भौतिकता पर आधारित राजनैतिक एवं आर्थिक दर्शन है जबकि हिन्दुत्व एक ऐसा दर्शन है जो मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त उसकी मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक आवश्यकता की भी पूर्ति करता है। कोई व्यक्ति मात्र सुविधाओं की प्राप्ति से प्रसन्न नहीं रह सकता। हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति है जो व्यक्ति की सभी वैध आवश्यकताओं और अभिलाषाओं को संतुष्ट करती है ताकि मानवता के सिद्धांतों के साथ प्रसन्न रह सके।
1. उच्चतम न्यायालय की दृष्टि में हिन्दु, हिन्दुत्व और हिन्दुइज्म
क्या हिन्दुत्व को सच्चे अर्थों में धर्म कहना सही है? इस प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय ने – “शास्त्री यज्ञपुरष दास जी और अन्य विरुद्ध मूलदास भूरदास वैश्य और अन्य (1966(3) एस.सी.आर. 242) के प्रकरण का विचार किया। इस प्रकरण में प्रश्न उठा था कि स्वामी नारायण सम्प्रदाय हिन्दुत्व का भाग है अथवा नहीं?
इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री गजेन्द्र गडकर ने अपने निर्णय में लिखा –
“जब हम हिन्दू धर्म के संबंध में सोचते हैं तो हमें हिन्दू धर्म को परिभाषित करने में कठिनाई अनुभव होती है। विश्व के अन्य मजहबों के विपरीत हिन्दू धर्म किसी एक दूत को नहीं मानता, किसी एक भगवान की पूजा नहीं करता, किसी एक मत का अनुयायी नहीं है, वह किसी एक दार्शनिक विचारधारा को नहीं मानता, यह किसी एक प्रकार की मजहबी पूजा पद्धति या रीति नीति को नहीं मानता, वह किसी मजहब या सम्प्रदाय की संतुष्टि नहीं करता है। बृहद रूप में हम इसे एक जीवन पद्धति के रूप में ही परिभाषित कर सकते हैं – इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।"
रमेश यशवंत प्रभु विरुद्ध प्रभाकर कुन्टे (ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 1113) के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय को विचार करना था कि विधानसभा के चुनावों के दौरान मतदाताओं से हिन्दुत्व के नाम पर वोट माँगना क्या मजहबी भ्रष्ट आचरण है। उच्चतम न्यायालय ने इस प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देते हुए अपने निर्णय में कहा -
“हिन्दू, हिन्दुत्व, हिन्दुइज्म को संक्षिप्त अर्थों में परिभाषित कर किन्हीं मजहबी संकीर्ण सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है। इसे भारतीय संस्कृति और परंपरा से अलग नहीं किया जा सकता। यह दर्शाता है कि हिन्दुत्व शब्द इस उपमहाद्वीप के लोगों की जीवन पद्धति से संबंधित है। इसे कट्टरपंथी मजहबी संकीर्णता के समान नहीं कहा जा सकता। साधारणतया हिन्दुत्व को एक जीवन पद्धति और मानव मन की दशा से ही समझा जा सकता है।”
2. अन्तर्राष्ट्रीय शब्दकोष और केरीब्राउन
वेबस्टर के अँग्रेजी भाषा के तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय शब्दकोष के विस्तृत संकलन में हिन्दुत्व का अर्थ इस प्रकार दिया गया है :-
यह सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक विश्वास और दृष्टिकोण का जटिल मिश्रण है। यह भारतीय उप महाद्वीप में विकसित हुआ। यह जातीयता पर आधारित, मानवता पर विश्वास करता है। यह एक विचार है जो कि हर प्रकार के विश्वासों पर विश्वास करता है तथा धर्म, कर्म, अहिंसा, संस्कार व मोक्ष को मानता है और न ही उनका पालन करता है । यह ज्ञान का रास्ता है स्नेह का रास्ता है । जो पुनर्जन्म पर विश्वास करता है । यह एक जीवन पद्धति है जो हिन्दू की विचारधारा है।"
अँग्रेजी लेखक केरीब्राउन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द इसेन्शियल टीचिंग्स ऑफ हिन्दुइज्म' में अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किये हैं –
“आज हम जिस संस्कृति को हिन्दू संस्कृति के रूप में जानते हैं और जिसे भारतीय सनातन धर्म या शाश्वत नियम कहते हैं वह उस मजहब से बड़ा सिद्धान्त है जिस मजहब को पश्चिम के लोग समझते हैं। कोई किसी भगवान में विश्वास करे या किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करे फिर भी वह हिन्दू है। यह एक जीवन पद्धति, है यह मस्तिष्क की एक दशा है।”
3. डॉ. राधाकृष्णन के विचार
डॉ. राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक “द हिन्दू व्यू ऑफ लाईफ" में हिन्दुत्व के स्वभाव का विवरण दिया है।
“अगर हम हिन्दुत्व के व्यावहारिक भाग को देखें तो हम पाते हैं कि यह जीवन पद्धति है न कि कोई विचारधारा। हिन्दुत्व जहाँ वैचारिक अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता देता है वहीं वह व्यावहारिक नियम को सख्ती से अपनाने को कहता है। नास्तिक अथवा आस्तिक सभी हिन्दू हो सकते हैं, बशर्ते वे हिन्दू संस्कृति और जीवन पद्धति को अपनाते हों। हिन्दुत्व धार्मिक एकरूपता पर जोर नहीं देता, वरन् आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाता है। इस या उस दृष्टिकोण का अनुयायी कभी भी दुष्ट प्रवृत्ति का अनुगमन नहीं करेगा। वास्तव में व्यावहारिकता, सिद्धांत के पूर्व की स्थिति है। हमारा धार्मिक और आध्यात्मिक चिंतन चाहे जो हो पर इस बात पर सभी सहमत हैं कि हमें अपने हितकारियों के प्रति आभारी और दुर्भाग्यहीनों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करनी चाहिए। हिन्दुत्व सामाजिक जीवन पर जोर देता है और उन लोगों को साथी बनाता है जो नैतिक मूल्यों से बँधे होते हैं। हिन्दुत्व कोई संप्रदाय नहीं है बल्कि उन लोगों का समुदाय है जो दृढ़ता से सत्य को पाने के लिये प्रयत्नशील हैं।”
4. धर्म पर उच्चतम न्यायालय का कथन
धर्म जिसे ऐतिहासिक कारणों से 'हिन्दू धर्म' कहा जाता है वह जीवन के सभी नियमों को शामिल करता है । जो जीवन के सुख के लिए आवश्यक है। भारत के उच्चतम न्यायालय की ओर से विचार व्यक्त करते हुये न्यायमूर्ति जे. रामास्वामी ने उक्त बात कही ।
(ए.आई.आर. 1996 एल.सी. 1765) –
धर्म या हिन्दू धर्म' सामाजिक सुरक्षा और मानवता के उत्थान के लिए किए गए कार्यों का समन्वय करता है। उन सभी प्रयासों का इसमें समावेश है जो कि उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति में तथा मानव मात्र की प्रगति में सहायक होते हैं। यही धर्म है, यही हिन्दू धर्म है और अन्तत: यही सर्वधर्म समभाव है। (पैरा 81)
इसके विपरीत भारत के एकीकरण हेतु धर्म वह है जो कि स्वयं ही अच्छी चेतना या किसी की प्रसन्नता के वांछित प्रयासों से प्रस्फुटित एवं सभी के कल्याण हेतु, भय, इच्छा, रोग से मुक्त, अच्छी भावनाओं एवं बंधुत्व भाव, एकता एवं मित्रता को स्वीकृति प्रदान करता है। यही वह मूल ‘रिलीजन' है जिसे संविधान सुरक्षा प्रदान करता है।' (पैरा 82)