कतारें थककर भी खामोश हैं,नजारे बोल रहे हैं।
नदी बहकर भी चुप है मगर किनारे बोल रहे हैं।
ये कैसा जलजला आया है दुनियाँ में इन दिनों,
झोंपडी मेरी खडी है और महल उनके डोल रहे हैं।।
परिंदों को तो रोज कहीं से गिरे हुए दाने जुटाने थे।
पर वे क्यों परेशान हैं जिनके घरों में भरे हुए तहखाने थे।
हमें तो आधे पेट सोने की आदत है सदा से,
सुना है आज उन्हें भी नींद नहीं आई जिन्हें लंगर चलाने थे।।