मैं अक्षरों को
बटोरने में लगा हूं-
कुछ शब्द,
बने हुए मिल जाएंगे,
कुछ, मैं बना लूंगा.
उन्हें कहीं भी उकेड़ूंगा-
कुछ कहने लगेंगे,
और,
उन्हें पढ़नेवाले
कुछ समझने लगेंगे.
मगर,
यह जरूरी तो नहीं-
मेरे संयोजनों की संवेदनाएं
हूबहू परिभाषित हों.
बेहतर है-
मैं शब्दों के निर्बाध
विचरण का ही
आनंद लूं.
वैसे भी,
मझे उनके सामर्थ्य पर
पूरा यकीन है-
आज नहीं तो कल,
वे झंकृत कर देंगी,
अचकचा देंगी,
उन सबों को
जिन्होंने
उन्हें नहीं सुनने की
कसम खा ली है.
पंकज