कवि: शिवदत्त श्रोत्रियहम उस गुलशन के गुल बन गयेजहाँ अब बाग़बान नही आताकुछ पत्ते हर रोज टूट कर, बिखर जाते हैपर कोई अब समेटने नही आता ॥क्योकिअब बाग़बान नही आता॥कुछ डाली सूख रही है यहाँकुछ पर पत्ते मुरझाने लगे हैहवा ने कुछ को मिटटी में मिला दिया हैकुछ किसी के इन्तेजार में है ॥क्योकिअब बाग़बान नही आता