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शिवदत्त के बारे में

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शिवदत्त की पुस्तकें

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कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय<br style="color: rgb(34, 34, 34); font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatin

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<p><span style="font-size: 15.4px; color: rgb(102, 102, 102); font-family: mangal, serif; line-height: 21.56px;">कवि:-&nbsp;शिवदत्त&nbsp;श्रोत्रिय</span></p><br style="color: rgb(34, 34, 34); font-family: Georgia, Utopia, 'Palatino Linotype', Palatin

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शिवदत्त के लेख

पत्थर से प्यार कर

8 नवम्बर 2019
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ज़िन्दगी है सीखेगा तू गलती हजार करकिसने कहा था लेकिन पत्थर से प्यार कर |पत्थर से प्यार करके पत्थर न तू हो जानापथरा न जाये आँखे पत्थर का इन्तेजार कर |ख़्वाब में भी होता उसकी जुल्फों का सितममजनूं बना ले खुद को पत्थर से मार कर |सिकंदर बन निकला था दुनिया को जीतनेपत्थर सा जम गया है पत्थर से हार कर |मुकद

जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं

20 मई 2018
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जब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैंकितना कुछ बदल जाता हैसारी दुनिया एक बंद कमरे में सिमिट जाता हैसारी संसार कितना छोटा हो जाता हैमैं देख पता हूँ, धरती के सभी छोरदेख पाता हूँ , आसमान के पारछू पाता हूँ, चाँद तारों को मैंमहसूस करता हूँ बादलो की नमीनहीं बाकी कुछ अब जिसकी हो कमीजब भी तुम्हारे पास आता हूँ मैं

खुदखुशी के मोड़ पर

15 मार्च 2018
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जिंदगी बिछड़ी हो तुम तन्हा मुझको छोड़ कर आज मैं बेबस खड़ा हूँ, खुदखुशी के मोड़ पर || जुगनुओं तुम चले आओ, चाहें जहाँ कही भी हो शायद कोई रास्ता

जब से तुम गयी हो

15 फरवरी 2018
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जबसे तुम गये हो लगता है की जैसे हर कोई मुझसे रूठ गया है हर रात जो बिस्तर मेरा इंतेजार करता था, जो दिन भर की थकान को ऐसे पी जाता था जैसे की मंथन के बाद विष को पी लिया भोले नाथ नेवो तकिया जो मेरी गर्दन को सहला लेता था जैसे की ममता की गोदवो चादर जो छिपा लेती थी मुझको बाहर की दुनिया सेआजकल ये सब नाराज़

खुद को तोड़ ताड़ के

10 दिसम्बर 2017
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कब तक चलेगा काम खुद को जोड़ जाड केहर रात रख देता हूँ मैं, खुद को तोड़ ताड़ के ||तन्हाइयों में भी वो मुझे तन्हा नहीं होने देता जाऊं भी तो कहाँ मैं खुद को छोड़ छाड़ के ||हर बार जादू उस ख़त का बढ़ता जाता हैजिसको रखा है हिफ़ाजत से मोड़ माड़ के ||वैसे ये भी कुछ नुक़सान का सौदा तो नहींसँ

कुछ फायदा नहीं

3 नवम्बर 2017
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कुछ फायदा नहींमैं सोचता हूँ, खुद को समझाऊँ बैठ कर एकदिनमगर, कुछ फायदा नहीं ||तुम क्या हो, हकीकत हो या ख़्वाब होकिसी दिन फुर्सत से सोचेंगे, अभी कुछ फायदा नहीं ||कभी छिपते है कभी निकल आते है, कितने मासूम है ये मेरे आँशुमैंने कभी पूछा नहीं किसके लिए गिर रहे हो तुमक्योकि कुछ फायदा नहींतुम पूछती मुझसे तो

कोई मजहब नहीं होता

12 अक्टूबर 2017
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कवि: शिवदत्त श्रोत्रियतुम्हारे वास्ते मैंने भी बनाया था एक मंदिरजो तुम आती तो कोई गज़ब नहीं होता ||मन्दिर मस्ज़िद गुरद्वारे हर जगह झलकते हैबेचारे आंशुओं का कोई मजहब नहीं होता ||तुम्हारे शहर का मिज़ाज़ कितना अज़ीज़ थाहम दोनों बहकते कुछ अजब नहीं होता ||जिनके ज़िक्र में कभी गुजर जाते थे मौसमउनका चर्चा भी अब ह

कब नीर बहेगा आँखों में

7 अक्टूबर 2017
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सागर कब सीमित होगाफिर से वो जीवित होगाआग जलेगी जब उसके अंदरप्रकाश फिर अपरिमित होगा ||सूरज से आँख मिलाएगाकब तक झूमेगा रातों में ?कब नीर बहेगा आँखों में ?छिपा कहाँ आक्रोश रहेगादेखो कब तक खामोश रहेगाज्वार किसी दिन उमड़ेगा सीमाएं सारी तोड़ेगावो सच तुमको बतलायेगाबातों से आग लगायेगाएक धनुष बनेगा बातों काबात

कभी सोचता हूँ कि

29 सितम्बर 2017
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कभी सोचता हूँ किकभी सोचता हूँ किजिंदगी की हर साँस जिसके नाम लिख दूँवो नाम इतना गुमनाम सा क्यों है ?कभी सोचता हूँ किहर दर्द हर शिकन में, हर ख़ुशी हर जलन मेंहर वादे-ए-जिंदगी में, हर हिज्र-ए -वहन मेंजोड़ दूँ जिसका नाम, इतना गुमनाम सा क्यों है ?कभी सोचता हूँ किसुबह है, खुली है अभी शायद आँखें मेरीलगता ह

जिस रात उस गली में

14 सितम्बर 2017
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रौशनी में खो गयी कुछ बात जिस गली में वो चाँद ढूढ़ने गया जिस रात उस गली में || आज झगड़ रहे है आपस में कुछ लुटेरे कुछ जोगी गुजरे थे एक साथ उस गली में || कुछ चिरागो ने जहाँ अपनी रौशनी खो दी क्यों ढूढ़ता है पागल कयनात उस गली में || मौसम बदलते होंगे तुम्हारे शहर में लेकिन रह

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