कतरनें ~ न्याय व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करता कैलाश मेहरा का ताजा व्यंग्य संग्रह ~ समीक्षा ~
● गोपाल गोयल ==========================
● जनकवि केदारनाथ अग्रवाल की धरती बाँदा मे कविता की परंपरा से अलग हटकर व्यंग्य लेखक का उद्भव हिन्दी साहित्य में एक अद्भुत योगदान है। केदार बाबू की तरह पेशे से वकील कैलाश मेहरा एक सशक्त, समर्थ तथा संवेदनशील व्यंग्य लेखक के रूप में उभर कर सामने आए हैं।
● कैलाश मेहरा का पहला व्यंग्य संग्रह "कतरनें" छप कर सामने आया है। लोकोदय प्रकाशन लखनऊ ने इस संग्रह को बहुत ही साज सज्जा के साथ प्रकाशित किया है।
● इस व्यंग्य संग्रह "कतरनें" और लेखक कैलाश मेहरा की चर्चा करते हुए यह कहना समीचीन होगा कि कैलाश मेहरा एक पेशेवर लेखक या व्यंग्यकार नहीं है, फिर भी सामाजिक विसंगतियाँ उनको बेचैन करती रहती हैं और इस बेचैनी का ही नतीजा है कि वह कलम उठा कर अपनी बेचैनी को व्यंग के परिधान पहनाकर समाज के सामने लाने की कोशिश करते हैं और इस तरह से एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका का निर्वाह करते हैं। शायद उनको ऐसा लगता है कि समाज की तमाम विसंगतियों को दूर करने के लिए और समाज को एक सही दिशा की ओर ले चलने के लिए एक लेखक को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए और वह लेखन पत्रकारिता के माध्यम से हो या कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक अथवा व्यंग्य के माध्यम से हो। व्यंग एक ऐसा माध्यम है जो अपना काम भी पूरा कर देता है और लेखक को भी खतरे के जोखिम से बचाए रखता है।
● हालांकि विगत इतिहास गवाह है कि बहुत तीखे और तल्ख व्यंग लिखने के कारण हरिशंकर परसाई को बहुत सारे खतरे उठाने पड़े हैं, शारीरिक क्षति भी उठानी पड़ी है। जान जोखिम के खतरे उनके सामने हमेशा बने रहे, फिर भी उन्होंने अपने लेखन को जारी रखा और समाज के लुटेरे तथा आततायी वर्ग पर निर्मम प्रहार लगातार किया।
● कैलाश मेहरा एक ऐसे व्यंगकार है, एक ऐसे लेखक हैं, जो सामाजिक कुरीतियों, कुरूपताओं, विद्रूपताओं, बुराइयों, सामाजिक असमानताओं तथा अन्याय के विरुद्ध मुखर होते हैं। इन स्थितियों से टकराते हैं, मुठभेड़ करते हैं और एक अच्छे, स्वस्थ्य, सुंदर तथा समरसता वाले समाज की कल्पना करते हैं। ऐसा शायद इसलिए भी है कि वे स्वयं बहुत साफ सुथरे रहने वाले व्यक्ति हैं ~ वेषभूषा से, मिजाज से तथा अपने आचरण से।
● उनके व्यंग सरल भी हैं और आक्रामक भी हैं तथा हमलावर की मुद्रा में भी आते हैं। वे लगातार सशक्त विरोध और प्रतिरोध भी करते हैं। वे छोटी सी छोटी बातों को अपनी व्यंग की विषय वस्तु बनाते हैं और व्यापक रूप में सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक बुराइयों पर भी कटाक्ष करने से नहीं चूकते हैं। उनके यहाँ व्यंग करते समय समझौते की कोई गुंजाइश नहीं होती है। अनेक बार तो उनके व्यंग सीधे-सीधे उसी तरह हो जाते हैं जैसे,” देखन में छोटे लगें,घाव करें अति गंभीर”।
● बकौल कैलाश मेहरा~ उन्होंने हरिशंकर परसाई और शरद जोशी जैसे व्यंग्यकारो को भी पढ़ा है और बहुत कुछ उनसे ग्रहण भी किया है, किंतु उनका व्यंग संग्रह पढ़ने के बाद मुझे ऐसा लगता है कि उनके ऊपर हरिशंकर परसाई का प्रभाव अधिक है और उससे भी आगे बढ़कर कहीं-कहीं तो कबीर की तरह अक्खड़ और बेलगाम तथा बेधड़क होकर भी तंज कसने में अपने को असहाय नहीं महसूस करते। यही उनके व्यंग की खूबी है। उनके अनेक व्यंग्य ऐसे हैं कि हर वह व्यक्ति उनके व्यंग पढ़कर तिलमिला उठता है, जिसको इंगित करके उन्होंने अपने व्यंग के तीर चलाए हैं। ऐसा व्यक्ति न तो विरोध कर पाता है, न ही आक्रामक हो पाता है। उसके अंदर एक बेचैनी एक तिलमिलाहट, कसमसाहट तथा हल्की फुल्की विद्रोह की भावना तो जन्म लेती है, लेकिन वह लाचार बना रहता है, क्योंकि वह अपनी कमजोरियों को देखकर बोलने या टकराने का दुसाहस नहीं पैदा कर पाता है और लेखक की यही खूबी उसके लेखन को सार्थकता प्रदान करती है। लेखक की कलम इन्हीं मायनो में सराहनीय और पूजनीय हो जाती है तथा संग्रहणीय भी हो जाती है। ऐसी स्थितियों में कैलाश मेहरा का यह संकलन एक दस्तावेजी संकलन बन कर हमारे सामने आता है।
● उदाहरण के लिए उनके कुछ व्यंग्य की झलक दिखाना भी जरूरी और समीचीन होगा ~ शहर की गंदगी पर भी उनके कई व्यंग है। एक व्यंग्य है "सीजन", जिसमें वह लिखते हैं कि ~ “सभी जगह सभी चीजों का अलग-अलग सीजन होता है, पर हमारे शहर में गंदगी का सीजन तो बारहमासी है। •••• अपने शहर में एक विभाग है, जो शहर की सफाई कराता है, पर साल में केवल 7 दिन 26 जनवरी, 15 अगस्त, 2 अक्टूबर, ईद, बकरीद, दशहरा, दिवाली।”
● इसी व्यंग में वह एक किस्सा बताते हैं कि “उनके एक मित्र के बेटे की सगाई टूट गई। वह मित्र इनको कारण पूछने पर बताते हैं कि सगाई के एक दिन पहले ही लड़की वालों का संदेश आया कि इस बदबू और गंदगी से भरे शहर में अपनी लड़की नहीं देंगे, जिनकी होनी थी हो गई, जिनकी नहीं हुई, उनका क्या होगा कालिया ?” एक और व्यंग्य है "लावारिस लाश" ~ जिसमें वे लिखते हैं कि~ “मेरे घर के सामने रोडवेज की कार्यशाला की दीवार के पास एक लावारिस लाश पड़ी है, पिछले लगभग 1 महीने से वहीं पड़ी है, उसका वारिस आज तक नहीं आया। उस लाश पर जो कपड़े लत्ते, थे, वह तो अगले दिन ही तमाम वारिस बिना दावे किए ले गए, अब तो बस कंकाल बचा है, जिसे ले जाने के लिए कोई तैयार नहीं है।••• यह लाश किसी आदमी की नहीं, चिल्ला के पेड़ की है, जो सड़क के लगभग मध्य में पिछले 1 महीने से पड़ी है और पथराई नजरों से अपने वारिस की तलाश कर रही है, जो कोई भी आता जाता दिखता है, उसे आशा बनती है कि उसकी अर्थी अब उठेगी।”
● पेशे से वकील होने के बावजूद वह अपने पेशे यानी न्याय व्यवस्था के ऊपर भी उंगली उठाने से संकोच नहीं करते हैं। उनका एक व्यंग है इंसाफ का तराजू। संक्षेप में जिसकी कथा यह है कि ~ “राजस्थान के एक छोटे से कस्बे में भंवरी देवी हैं, जो बीजिंग चीन में हुए अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन में भारत की ओर से एक प्रतिनिधि के रूप में गई थी। उन्होंने गाँव के एक धनी परिवार की 1 वर्ष की लड़की का विवाह पक्का हो जाने के खिलाफ आवाज ऊँची करने की जुर्रत की, जिसका खामियाजा भंवरी देवी को भोगना पड़ा और वह 5 आदमियों के साथ बलात्कार का शिकार हो गईं। विद्वान जज साहब ने निचली अदालत से पांचों बलात्कारियों को बाइज्जत बरी कर दिया। विद्वान न्यायाधीश ने अपने निर्णय में यह तर्क देते हुए यह कहा कि यह असंभव है कि 5 व्यक्तियों में, जिनमे से तीन चाचा और दो भतीजे शामिल हों, एक ही महिला के साथ बलात्कार करेंगे और वह भी महिला के पति के सामने ? कितना घिनौना तर्क स्वीकार किया गया ? एक और तर्क था ~ यह भी है कि ऊँची जाति के ये पाँच लोग नीची जात की महिला के साथ बलात्कार करेंगे ? इस निर्णय ने बलात्कारियों के हौसले और भी बुलंद कर दिए हैं पर अभी और भी ऊपर अदालतें हैं, आवाज सुनेंगे और भंवरी देवी को न्याय मिलेगा।”
● न्याय व्यवस्था पर उंगली उठाता उनका एक और व्यंग है~ झींगुरी न्याय। “एक झींगुर एक लस्सी के गिलास में समा गया। लस्सी पहुँच गई एक न्यायिक अधिकारी के पास। आधी लस्सी पीने के बाद उनको आराम फरमाते झींगुर महाशय दिखे, उनको तो गिलास से बाहर निकाल दिया गया और लस्सी बनाने वाले को जेल के अंदर। कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की अपनी शान होती है लस्सी में झींगुर ? और कुर्सी पर बैठने वाला चुपचाप कैसे रह सकता है ? झींगुर हत्या के अपराध में लस्सी वाला बासु आज जेल की सलाखों के पीछे है। मामला संगीन बना दिया गया। अधिकारी ने भी न्याय किया और अपना आन बान और शान से बासू का मुकद्दर लिख दिया।”
● इसी में एक घटना का उल्लेख है एक रेस्टोरेंट में एक महाशय को दाल की प्लेट में मक्खी मिली। ग्राहक ने मालिक से शिकायत की, तो जवाब मिला “₹ 5 की प्लेट में मक्खी ही फ्री दे सकते हैं, एक प्लेट मुर्गा मंगाइए तो मेढक फ्री मिलेगा।”
● उपरोक्त व्यंग्य संग्रह "कतरनें" के विमोचन के समय मुख्य अतिथि के रूप में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश आलोक सिंह ने अपने संबोधन में कहा था कि ~ व्यंग्य संग्रह के लेखक कैलाश मेहरा की धर्म पत्नी को प्रथम धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने लेखक के पर नही कतरे, इसीलिए "कतरनें" जैसा महत्वपूर्ण व्यंग्य संग्रह आज हमारे हाथों में है। जिला अधिवक्ता संघ के अध्यक्ष जनाब एजाज अहमद का कहना है कि~ आज जब सामाजिक जीवन में हर कदम पर खतरे ही खतरे हैं, तब ऐसे कठिन वक्त मे कैलाश मेहरा का व्यंग्य संग्रह आम आदमी को तसल्ली और राहत देने वाला एक मजबूत औजार है।
● प्रख्यात कथाकार एवं उपन्यासकार गोविन्द मिश्र ने इस पुस्तक मे "साधुवाद" शीर्षक मे लिखा है कि कैलाश भाई के स्वभाव में प्राकृतिक रूप से व्यंग की जो प्रवृत्ति है, जब वह सामाजिक विकृति से टकराती है, तब एक धारदार रचना जन्म लेती है।
● अपने सहपाठी को “शुभकामनाएं“ समर्पित करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश आलोक कुमार सिंह जी बताते हैं कि कैलाश ने व्यंग लेखन की विधा को अपनाया। वे समय-समय पर समाज में फैली विसंगतियों, पाखंड तथा अन्याय को अपनी रचनाओं में व्यंग के माध्यम से उजागर करते रहे। जब भी कोई प्रसंग उनके जीवन में आता, तो फिर “फ्री लांसर” कैलाश अपने को रोक नहीं सके और व्यंग लेखन को अपनी अभिव्यक्ति का सहारा बना लिया। व्यंग लेखन की यही तो खूबी है कि किसी विषय को अपनी रचना से सहज रोचक और चुटीले अंदाज से कहा जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी तो टूटे ही नहीं।
● मेरी बात मे कैलाश मेहरा लिखते हैं कि व्यंग लिखने की प्रेरणा श्रेष्ठ व्यंग्यकार श्री शरद जोशी, के पी सक्सेना, हरिशंकर परसाई और मनोहर श्याम जोशी से मिली। पाठकों के बीच इन लेखकों ने स्वस्थ्य चेतना का संचार किया। जीवन में छिपे पाखंड को उद्घाटित किया। ••••• बस, इन्हीं आदर्श व्यंग्यकारों से प्रेरणा मिली और व्यंग्य के माध्यम से कई सामाजिक विषयों पर तंज कसने का विचार आया, तो कलम का सहारा लिया और अपनी व्यथा सामाजिक राजनीतिक तथा अन्य विषयों पर व्यंग की बैसाखी से निकल पड़ी। इन व्यंग्यकारों की तुलना में मैं तो पसंगा भी नहीं हूं मात्र भुनगा ही हूँ।
● पुस्तक का मूल्य मात्र 200 ₹ है। इसे प्राप्त करने के लिए संपर्क करें ~ लोकोदय प्रकाशन / 65/44 शंकर पुर छितवापुर रोड, लखनऊ
मोबाइल~ 9076633657
● गोपाल गोयल