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कविताएँ

25 जुलाई 2022

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1

दाढ़ी और तिलक 

आमने-सामने तन कर खड़े हैं।

गर्व और गुरुर से अड़े हैं।

मनुष्यता से भी अधिक 

इनके धर्म बड़े हैं।

2

हाथों में डंडे और तलवारों से लैस 

भगवे आक्रांता 

मार डालने पर थे आमादा,

उन सभी को। 

देखा नहीं गया मुझसे,

तो कोशिश की उन्हें रोकने की। 

दुसाहस किया उनसे भिड़ने का।

उस उन्मादी भीड़ ने, 

मेरा ही कत्ल कर दिया। 

पुलिस ने, 

इसे आत्महत्या साबित कर दिया। 

मेरी चीख 

न्याय के चौखट तक पहुँची,

लेकिन वहाँ पर, 

काठ की कुर्सियाँ थीं 

और खौफनाक सन्नाटा था। 

3

 शहर छोड़, गाँव आ गया 

अमन चैन की तलाश में, 

लेकिन यहाँ भी

दूर दूर तक 

गर्म था माहौल।

सिसक रहीं थीं, 

सहमी सहमी मस्जिदें 

और अट्टहास कर रहे थे मंदिर। 

मँडरा रही थी, 

अजीब सी बेचैनी।

गाँव के चेहरों पर पसरा था 

अनजाना खौफ, 

और घूम रहे थे, 

असुरक्षा के प्रश्न चिन्ह। 

क्या हो रहा है 

गाँधी के मुल्क में ?

गोपाल गोयल 



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