नीलिमा और धीरेन्द्र हरिद्वार की सड़कों पर ,घरवालों से छुपकर ,रात्रि में घूम रहे थे। गंगा घाट पर पहुंचकर आइसक्रीम खाते हुए ,मस्ती कर रहे थे। धीरेन्द्र जानना चाहता था -कि नीलिमा हनीमून पर कहाँ जाना चाहती है ?नीलिमा ने तो अपने घर के सिवा ,बाहर की दुनिया में ,अपनी ससुराल ही देखी थी ,उसके लिए तो हर शहर अनजान और अजनबी था। उसके लिए तो उसने किताबों में जो छवि कश्मीर की देखी थी ,उसी कश्मीर को वो देखना चाहती थी। एक बार उसने धीरेन्द्र से जिक्र भी किया किन्तु धीरेन्द्र शायद उसकी बातों को मजाक में ले गया।
कुछ देर इसी तरह गंगा तीरे बैठे रहे ,कुछ समय पश्चात नीलिमा बोली -चलिए ! कभी मम्मी -पापा को मालूम पड़ गया तो......तुम ही जबाब देना।
अच्छा जी ,जब डांट खानी होगी ,तब मुझे आगे कर दिया ,ख़ैर तुम्हे कोई डांटने वाला नहीं ,जो भी डांट पड़नी है ,वो मुझे ही पड़ेगी। माय डियर ! तुम्हारे पतिदेव ने इस रास्ते का , न जाने कितनी बार प्रयोग किया और आज तक पकड़ा नहीं गया।
चलो छोडो ! कल तुम्हें अपने काम पर भी तो जाना है ,कहकर नीलिमा पहले तेज़ -तेज़ कदमों से चली और फिर दौड़ने लगी क्योंकि उसके पीछे धीरेन्द्र जो आ रहा था। इस भाग -दौड़ में उसे मज़ा आने लगा ,धीरेन्द्र उसे पकड़ तो नहीं पाया किन्तु नीलिमा की साडी उसके पैरों में आ गयी ,इसीलिए वो अपनी साड़ी ठीक करने के लिए नीचे झुकी ही थी ,तभी धीरेन्द्र ने उसे आकर पकड़ लिया।
नहीं , ये तो बात गलत है ,तुम मुझे पकड़ नहीं सकते थे।
अब तो पकड़ लिया न......
आज निलिमा ने जब अपनी आँखें खोलीं , उसे लगा,जैसे वो स्वर्ग में आ गयी है। अपने कमरे की खिड़की से बाहर के नज़ारे का जायज़ा लिया। दूर कहीं ,बर्फ़ से ढ़की ,पहाड़ियां उसे नज़र आ रही थीं। जी हाँ ,नीलिमा अपने ''हनीमून ''पर अपने पति धीरेन्द्र के साथ आई है। अभी तक आप सोच रहे होंगे ,आख़िरकार धीरेन्द्र नीलिमा को कश्मीर ले ही आया। जी नहीं ,ये पहाड़ियाँ कश्मीर की नहीं वरन किसी विदेशी शहर ,जहाँ अक़्सर नए विवाहित जोड़े आना पसंद करते हैं। जी हाँ ,आज नीलिमा विदेशी जमीन ''स्विट्जरलैंड ''के एक होटल की खिड़की से बाहर का नजारा देख रही थी। अभी धीरेन्द्र सोया हुआ ही है । निलिमा ने उठकर अपने को आईने में निहारा और स्वयं में ही शरमाकर सिमट गयी।
आज उसने धीरेन्द्र के द्वारा लाई गयी ,बारीक़ काली नाइटी जो पहनी थी। उसके बेड़ पर कुम्हलाये और मसले कुछ फूलों की पंखुड़ियाँ उनकी रात्रि में ,साथ होने की गवाही दे रही थीं। नीलिमा ने ,चाय अपने कमरे में ही मंगवा ली थी। उसकी ज़िंदगी किसी सपने से कम नहीं लग रही थी। उसे तो लग रहा था जैसे -उसे जमीन से उठाकर किसी ने रानी बना दिया। ये चीजें ,ये रहन -सहन तो वो सपने में भी नहीं सोच सकती थी। परियों की कहानी में पढ़ा था -परी ने अपनी जादुई छड़ी से छुआ और एक ग़रीब लड़की ,राजकुमारी बन गयी इसी तरह ,धीरेन्द्र के छूने या उसकी संगत में , नीलिमा अपने पैर तो जमीन पर रखना चाहती है किन्तु आसमान में उडी जा रही है।
वो तो सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि उसका हनीमून विदेश में होगा। प्रसन्नता के कारण ,उसे समझ नहीं आ रहा कि अपनी प्रसन्नता किससे और कैसे व्यक्त करे ? धीरेन्द्र भी न, उसके लिए रहस्य बनता जा रहा है। कब -क्या कर बैठे ? कुछ कहा नहीं जा सकता।अभी चार दिन पहले की ही तो बात है ,मुझसे बोला -चलो ! कुछ खरीददारी करनी है।
क्यों ? अभी तो मेरे पास कपड़े हैं , नीलिमा ने कहा।
तुमसे जैसे कह रहा हूँ ,वैसा ही करो !
नीलिमा अंदर जाकर चुपचाप तैयार हो गयी। बाजार में ,जब वो लोग पहुंचे तो उसके लिए जैकेट ,जींस ,सभी पाश्चात्य वस्त्र खरीदने लगा। ये सब किसलिए और किसके लिए ले रहे हो ?
तुम्हारे लिए ?
क्या ?????
मैंने तो ,ऐसे कपड़े कभी पहने ही नहीं।
अब पहनोगी ,अब तुम ''धीरेन्द्र सक्सैना '' की पत्नी हो और नीलिमा को जबरदस्ती ''ट्रायल रूम ''में धकेल दिया। जब वो बाहर आई ,धीरेन्द्र उस पर फिदा हो गया। इस तरह ,उसने नीलिमा को कई जोड़ी कपड़े ,कुछ अपनी पसंद के ,कुछ उसकी पसंद के दिलवा दिए। प्रत्यक्ष तो वो मना ही कर रही थी किन्तु मन ही मन प्रसन्न थी। ख़ुशी के कारण ,उसका दिल बल्लियों उछल रहा था। धीरेन्द्र उसे समय भी दे रहा था और उसका ख्याल भी रख रहा था।
अपने घर आते ही ,सबसे पहले चन्द्रिका ने अपने घर फोन लगवाया ,अपनी खुशियां वो किसी से बाँट लेना चाहती थी। घर में मम्मी तो थीं नहीं ,डिम्पी ने फोन उठाया। डिम्पी अभी छोटी थी ,उससे कहते हुए, हिचकिचाहट हो रही थी।
अब तो उसकी दीदी 'चंद्रिका 'के लिए भी इज्जत का सवाल बन गया था ,उसने भी अपने पति को लताड़ा और एक फोन लगवाकर ही मानी। वैसे तो चंद्रिका अपनी बहन के लिए प्रसन्न थी किन्तु धीरेन्द्र का रहन -सहन और उसके खर्चे देख मन ही मन उसे जलन हो रही थी। अपने को अपनी छोटी बहन से किसी भी तरह कम न आंकते हुए ,उसने भी फोन लगवा ही लिया। उसी फोन का नंबर ,डिम्पी ने नीलिमा को दिया।
कुछ समय पश्चात ही ,चंद्रिका के घर के फोन की घंटी घनघना उठी ,उधर से आवाज आई -हैलो....
हैलो दीदी ! मैं नीलिमा...... नीलिमा की आवाज सुनकर चंद्रिका प्रसन्न हुई।
उसे लगा -शायद मेरे घर फोन लग गया इसीलिए बधाई देने के लिए फोन किया है ,हाँ ...... आखिर तुझे ,मेरा नंबर मिल ही गया ,तेरे जीजाजी ने भी फोन लगवा लिया। कह रहे थे -अब तू जब जी चाहे ,अपनी बहन से फोन पर बातें कर सकती है। वैसे ये नंबर तुझे किसने दिया ?
नीलिमा अपने मन की बात ,अपनी बहन से करना चाहती थी किन्तु बहन तो ,अपने फोन के गुणगान में लगी थी।
नीलिमा को भी ,जैसे होश आया और बोली -बधाई हो ,दीदी ! कहकर बोली -अच्छा अभी फोन रखती हूँ ,फिर करूंगी। वो अपनी बहन से ,अपने जीवन में हो रहे परिवर्तनों को ,अपनी बहन से या किसी क़रीबी से बाँट लेना चाहती थी किन्तु अब उसका मन नहीं हुआ और उसने फोन काट दिया।
शाम को ,धीरेन्द्र से बोली -तुम जानते हो ,मैं ऐसे कपड़े नहीं पहनती ,पापा जी -मम्मीजी के सामने ,इन्हें पहनकर घर से बाहर कैसे निकलूंगी ?
मेरी जान ! तुम्हें इन्हें मम्मी -पापा के सामने ,पहनने को कौन कह रहा है ?इन्हें तो अपने ''हनीमून ''पर पहनना।
क्या सच !!!!!! ?
हम कहाँ जा रहे हैं ?
कश्मीर या देहरादून या फिर कहीं ओर ! इससे आगे का तो वो सोच भी नहीं सकती थी।
ये ही ,'सरप्राइज ''है।
दो दिन बाद , वो ''हवाई अड्डे ''पर खड़ी थी ,उसने पहली बार प्रत्यक्ष में ''हवाई अड्डा ''देखा था ,अभी तक तो तस्वीरों में ही देखती आई थी।
प्रिय पाठकों ! ये कहानी आपको कैसी लग रही है ?अपनी समीक्षा अवश्य दीजिये और प्रोत्साहन भी।नीलिमा की ज़िंदगी में ,कितने और कैसे -कैसे मोड़ आते हैं ? जानने के लिए पढ़ते रहिये -''ऐसी भी ज़िंदगी ''