नीलिमा ,धीरेन्द्र को बिना कुछ भी कारण बताये ,अपने घर चली जाती है ,वो भी ,कभी न आने के लिए ही गयी थी किन्तु अपना इरादा सिर्फ़ ,उसने अपनी बहन चंद्रिका को बताया था। किन्तु यहाँ उसने महसूस किया कि वो अब उसका अपना घर नहीं रहा ,इस घर में अपना अधिकार खो चुकी है। ये घर तो पहले भी उसका नहीं था किन्तु जहाँ जन्म लिया ,पले -बढ़े ,वहाँ के लिए भावनाएँ जुडी रहती हैं ,अपनापन और अधिकार की भावना स्वतः ही रहती हैं किन्तु जब उसी घर में तिरस्कार महसूस होता है ,आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती है ,तब अपना कोई नजर नहीं आता तब दिल टूटता है। नीलिमा का हाल , कुछ इसी तरह से है। रोने को दिल चाहता है किन्तु आँसू पोंछने के लिए कोई अपना नजर नहीं आता ,अपने आंसू भी स्वयं ही पोंछने हैं।
आज अचानक पापा बोले -नीलिमा तुम्हारा फोन है।
अपने आप से लड़ते हुए ,अचानक आज वो जैसे वर्तमान में आ गयी ,धीरेन्द्र को तो जैसे भूल ही गयी थी आज उसका फोन की बात सुनकर ,उसके आंसू लुढ़क पड़े। उसने आंसू पोंछते हुए -हैलो !कहा।
उधर से आवाज़ आई -अरे यार !तुम ऐसे कैसे चली गयीं ?तुम्हारे बिना मन नहीं लग रहा और वो मेरा लाडला ,कहीं अपने बाप को भूल ही न जाये ,जान !तुम लोगों की याद आ रही है ,आ जाओ ! क्या मुझसे बोर हो गयीं ?
धीरेन्द्र के ये प्यार भरे शब्द ,उसकी शिकायतें उसको रुलाने के लिए काफी थीं ,अभी तो धीरेन्द्र को ये भी नहीं मालूम था कि वो गयी ही क्यों थी ? इस बात के लिए भी वो, अपने आप से ही जूझ रही थी। नीलिमा को उसके इस तरह बुलाने पर, अपना फैसला बदलने पर मजबूर कर दिया ,अब तो उसे अपने घर की याद आने लगी। ये तो ज़िंदगी है ,जो होगा देखा जायेगा ,इस तरह परायेपन से रहने से तो अच्छा है ,अपने ही घर चला जाये। वो घर केेसा भी हो ?इन बच्चों को तो मैं उस घर से वंचित नहीं कर सकती।
तीन -चार दिनों में ही धीरेन्द्र को घर काटने को दौड़ने लगा था,चम्पा से भी, कब तक दिल बहलाता ? उससे तो सिर्फ़ मतलब का ही रिश्ता था ,उस अकेलेपन को दूर करने के लिए ,उसने नीलिमा को बुला लिया किन्तु उसका खर्चा भी बहुत बढ़ था। अभी वो पैसों की तंगी महसूस कर रहा था किन्तु बच्चों के लिए भी परेशान हो रहा था इसीलिए आज नीलिमा को फोन कर ,उसे बुला ही लिया।नीलिमा को भी लग रहा था कि वो कितनी बड़ी गलती करने की सोच रही थी ? गाड़ी में अपने बच्चों संग बैठी वो ,सोच रही थी -''कई बार हम परिस्थितियों से घबराकर ,जल्दबाज़ी में कुछ गलत निर्णय ले लेते हैं ,मुस्कुराते हुए ,चलो अच्छा ही हुआ समय रहते सब ठीक हो गया समय बीत जाने पर ,जब धीरेन्द्र को पता चलता ,तब मैं किधर जाती ?उसकी नजरों का सामना भी नहीं कर पाती।
घर पहुंचकर ,उसने जैसे सुकून की स्वाँस ली ,जो घुटन उसे ,उस घर में महसूस हो रही थी ,वो घर उसे अपना होते हुए भी ,अपना नहीं लग रहा था। मम्मी -पापा के घर में ही ,उस घुटन को पीछे छोड़ आई। नवीन चेतना सी उसके अंदर भर गयी। वहां पहुंचकर उसने डॉक्टर से 'एपॉइंटमेंट 'ली। बहुत दिनों पश्चात ,आज उसने धीरेन्द्र को छुआ ,उसकी छुअन ,उसे जैसे जलते मन को ठंडक दे रही थी। अभी तक शायद कुछ कमी रह गयी थी ,आज वो अपना तन ही नहीं मन भी उसे पूर्णतः समर्पित कर देना चाहती थी।
ज़िंदगी में कभी -कभी ऐसे पल आ जाते हैं, जिस चीज़ की हमें क़द्र नहीं होती ,परिस्थितियां उनका एहसास करा ही देती हैं। अभी तक तो नीलिमा को उसके पैसे के सिवा या घूमने -फिरने के सिवा ,उसके प्यार का एहसास ही नहीं हुआ था किन्तु आज उसके प्रति प्यार की गहराई को महसूस कर रही थी। जब अपना ही मन ये मान लेता है तब लगता है ,दूसरे के मन में भी वही भाव महसूस करता है ,जब मन को कुछ अच्छा लगता है ,तब उसे सभी चीजें अच्छी लगती हैं ,यहाँ तक की ,आस -पास का वातावरण भी अनुकूल ही नजर आता है।
धीरेन्द्र ऐसा नहीं सोचता था ,उसे तो अपने बच्चे से प्यार था। अब सूना घर भी खलने लगा था इसीलिए कैसे भी हो ?अपने परिवार को अपनी नजरों के सामने देखना चाहता था। अभी उसे उधार लिया पैसा भी चुकाना था। कहने को तो वो एक 'अभियंता 'था किन्तु उसकी अत्यधिक खर्चों के कारण ,उसकी आर्थिक स्थिति डांवाडोल थी। नीलिमा को सबकुछ बताना चाहकर भी कुछ नहीं बता पाया।
आज नीलिमा अपने बेटे को लेकर ,डॉक्टर के पास गयी और अपनी परेशानी भी बताई।
डॉक्टर थोड़ी गंभीर हो गयी उसने उसके बेटे की जाँच की और ऐसी बीमारी बताई जिसका नाम नीलिमा ने आज तक नहीं सुना था।
डॉक्टर !ये बीमारी तो मैंने आज तक नहीं सुनी ,खाँसी -नजला ,बुखार कुछ अन्य रोग भी होते हैं किन्तु ये ''ऑटिज़्म '' क्या है ?
ये एक मानसिक बीमारी है ,इसमें बच्चा बाहरी लोगों से जुड़ नहीं पाता ,इससे प्रभावित व्यक्ति का मष्तिष्क और शरीर दोनों के विकास पर ही असर होता है।
नीलिमा इस बीमारी की गंभीरता को अभी भी नहीं समझी और बोली -इसका इलाज़ सम्भव है या नहीं। है ,तो कब तक चलेगा ?
इसके इलाज से लाभ तो हो सकता है ,किन्तु पूर्णतः ठीक होने की संभावना नहीं ,ये बीमारी सम्पूर्ण ज़िंदगी भी रह सकती है। तुम अपने बच्चे का विशेष ख़्याल रखती हो इसीलिए शीघ्र ही पता चल गया कई बार तो दो -तीन वर्ष से पहले इसकी जानकारी नहीं हो पाती। आगे उम्र के साथ भी इसके और भी लक्षण दिखने लगेंगे।
नीलिमा के तो जैसे ''पैरों तले ज़मीन ख़िसक गयी। '' और मन ही मन बुदबुदाई -ये सम्पूर्ण जिंदगी रहने वाली बीमारी है। डॉक्टर की अन्य बातें उसे सुनाई ही नहीं दे रही थीं। वो अपने नसीब को कोसे ,क्या करे ? समझ नहीं आ रहा था। कुछ पल की ख़ुशी देकर ,पता नहीं ,ज़िंदगी उससे क्या चाहती है ? ये तो उसने ज़िंदगीभर का ग़म दे दिया। ये एक लड़का दिया था ,वो भी बिमार.......
क्या बताउंगी ? धीरेन्द्र से ! क्या कहूँगी कि उसके बेटे को ऐसी बीमारी जो कभी ठीक नहीं होगी। ये पता नहीं हमारे या न जाने किसके कर्मों का दंड़ है? जो हमें पूरी ज़िंदगी झेलना होगा। घर आकर उसने किसी से कुछ नहीं कहा। चुपचाप अपने कार्य में लगी रही। शाम को जब धीरेन्द्र घर आया ,तब नीलिमा ने मुस्कुराने की नाक़ामयाब कोशिश की।
नीलिमा का चेहरा देखकर ,धीरेन्द्र ने पूछा -क्या सब ठीक है ?
जी..... ये संक्षिप्त सा जबाब सुनकर धीरेन्द्र ने पुनः पूछा -क्या हुआ ? तुम्हारा चेहरा उतरा हुआ क्यों है ?
वैसे ही थकान हो रही है ,तुम्हारे बच्चे चैन से रहने भी नहीं देते ,किसी का ''होमवर्क ''किसी को दूध देना ,दिन में पचास बार तो मेरे चक्कर ऊपर से उतरने और चढ़ने में लगते होंगे अब तुम ही बताओ !थकूँगी नहीं ,जब थकावट होगी तो चेहरे पर भी दिखेगी। उसका मन तो चाह रहा था कि सब कुछ उसे बता दे ,बेमाता ने हमें फ़ल तो दिया है किन्तु वो फ़ल....... क्या कहूँ ? फिर सोचा ,अभी इसे खुश ही रहने दो ,मैं तो धरती हूँ ,सब झेल लूँगी। दोनों की ज़िंदगी में मुसीबत मुँह बाये खड़ी थीं किन्तु दोनों ने ही एक -दूसरे को नहीं बताया। क्या धीरेंद्र को अपने बेटे की बीमारी के विषय में पता चलेगा या नही पता चल भी गया तो क्या हालात होंगे? पढ़ते रहिये -ऐसी भी ज़िंदगी