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अनावरण

8 अगस्त 2022

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 जिस दिन अनावरण होने वाला था-बाजार का दिन था। मुझे लगता है। बाजार का दिन जानबुझ कर रखा गया था। क्योंकि उस दिन भीड़ होती है और आप तो जानते ही हैं कि हर राजनीतिक अनुष्ठान की पूर्णता के लिए भीड़ एक आवश्यक सामग्री होती है। 

मैं बाजार में सब्जियाँ तौलने का काम करता था। देर हो रही थी। काँटा पल्ला लिए में तेजी से जा रहा था। कि तभी- ‘‘बड़ी जल्दी में लग रहे हो। कब से आवाज दे रहे हैं। सुनते ही नहीं।’’ कोई मेरे ठीक पीछे से बोला था।  

सोंच खंडित हो गई। पलट कर देखा बहादुर मलार कंधे पर टोकिया टांगे मेरे पीछे-पीछे चला आ रहा है।  

‘‘ओह बहादुर!’’ मैं मुस्कराया - ‘‘सुन नहीं सकें। आज देर हो गई ना! और सुनाओ?’’ 

‘‘क्या सुनायें।’’ वह मेरे बराबर आ गया और कदमताल करता हुआ बोला- ‘‘कहाँ रहते हो आज कल... हम तो सोचते थे। बाहर रहते होंगे, नौकरी चाकरी करते होंगे।’’ 

‘‘काहे मजाक उड़ाते हो बहादुर भाई। हम जैसों को नौकरी मिलने लगी तब तो हुआ काम। वैसे आजकल क्या कररहे हों?’’ 

‘‘वहीं! जो हजारों बरस से करते आ रहे हैं।’’ बहादुर विद्रुप सी मुस्कराहट के साथ बोला।  

मैंने उसकी टोकिया में झाँक - मत्स्यगंध टकराई नाक से - ‘‘यही चिंगड़ी और गेतू मछली पकड़ रहे हो हजारों बरस से...?’’ 

टोकिया के पेदों में थोड़े से पानी में कुछ गेतू और पोठी कुल बुलाती नजर आई। मैंने बहादुर को देखा- उसके चेहरे में कोई भाव नहीं था। स्थिर कटोरे के पानी जैसी आँखें-निर्विकार! मैं कभी भी पता नहीं लगा सका हूँ कि इसके मन में क्या है। जब इसका बाप मलेरिया से मर गया और ये स्कूल से गणित की कक्षा बीच में ही छोड़कर आ रहा था - तब भी! और जब दूसरे दिन स्कूल में नजर आया - तब भी! मैंने गौर से देखा था उसके चेहरे को,
उसकी आँखों को! दुःख ढूँढ रहा उनमें। पर कहीं नजर नहीं आ रहा था। भावों पर काबु पाना किसने सीखा दिया था उसे? 

बेहद गरीब बाप का बेटा... पर जब भी स्कूल में दिखता। साफ सफ्फाक सफेद हाफबाजू वाले शर्ट में एक भी दाग धब्बा नहीं। एक ही शर्ट थी। पर इतना साफ रखता था उसे की शक होता था - बहादुर दिखता जितना गरीब है,
उतना है नहीं। पर ब्लू रंग के हाफ पैंट इस विचार को तोड़ देता। चुतड़ में बड़ा सा पैबंद लगा था,
दूसरे रंग के कपड़े का। 

जिस दिन बहादुर स्कूल में बोला था - ‘‘कल से नहीं आयेंगे।’’ तब भी में हैरान उसके चेहरे को घुरता रह गया था -  

‘‘काहे?’’ 

‘‘कोई फैदा नहीं है, स्कूल आने में...।’’ 

उसने लापरवाही से कहा। 

मैं पुरे दिन उसको स्कूल आने का फायदा बताता रहा। पर टस से मस नहीं हुआ। सिर्फ इतना बोला था - ‘‘चचा बोल रहा है... साथ में काम करो। 

मुझे उसके चाचा पर गुस्सा आने लगा। 

बहकाने लगा उसके खिलाफ,
पर बाहदुर सिर्फ मुस्कराते और मास्टर की नजर बचाकर खैनी खा के ‘पच्च’ से कोने में थूकने के अलावे एक शब्द भी नहीं बोला। 

मेरी नजर तिराहे के बीचों बीच सड़क के द्वीप पर गई और चौक उठा - गोलाकार चबुतरे की रंगाई पुताई चल रही थी। 

‘‘आज कुछ होने वाला है क्या बहादुर?’’ मैंने पुछा। 

‘‘कहाँ रहते हो, कुछ नहीं जानते?’’ बहादुर हँसा। 

‘‘अनावरण होगा आज मुर्ति का्’’ 

एक डेढ़ महीना से चबुतरे पर एक मुर्ति रखी हुई थी। प्लास्टिक में लपेटकर। प्लास्टिक तो हट गया था। पर हरे रंग का शालू अब भी लपेटा हुआ था। 

‘‘मर गया बेचारा मगर देखो गांव वालों को कितना फैदा हो रहा है।’’ बहादुर श्रद्धायुक्त स्वर में बोला। 

‘‘तुमको फैदा हुआ? मैंने हँसते हुए कहा। 

‘‘हमको भी फैदा होता...।’’ बहादुर दीर्घश्वास खींचते हुए बोला। 

‘‘कैसे?’’ मैंने पुछा। 

‘‘एक ठो गोली हमरा कनपटी को छोछरते (छिलते) हुए पार हो गया थ।’’ उसने अपनी मनपटी सहलाते हुए कहा - ‘‘सिर्फ छोछराया (खरोंच) भर... थोड़ा और लगता ना... तब देखता!’’  

‘‘क्या देखता?’’ मैंने हैरानी से कहा। 

‘हर बाजार मिलता दो तीन सौ रूपिया... साहेबवा को देखो छर्रा लगा था पेट में... अभी देखो कैसा ठाठ से घुमता है। जींस! मोबाइल! रोज नया नया टी-शर्ट।’’ 

‘‘और अगर मर जाते तुम! तब?’’ 

मरने जितना लगता थोड़ी ना बोल रहे हैं ! 

मेरी बोल न फुटी। हैरान होकर देखता रह गया बहादुर मलार को। जो चलते चलते हरे शालू में ढँकी मुर्ति को स्पृहा से देख रहा था। 

  

वह अपनी राह चला गया और में अपनी। 

संघर्ष! संघर्ष!! संघर्ष!!! 

बंद! हड़ताल! चक्का जाम! 

अपने अधिकारों के लिए पारंपरिक हथियारों के साथ आंदोलन। महीनों तक राजनीतिक छल छद्म उड़ता रहा । गंदरू को तब जाकर आज कोई प्लेटफार्म मिला था। जिसकी रगाई पुताई चल रही थी। मैं दूर से ही कारीगरों के सधे हाथों को देख रहा था। तभी एक हल्का सा धक्का पड़ा और मैं तीन चार कदम आगे चला आया।  

‘‘जानता नहीं, मानता नहीं, गुणता नहीं मुकूर मुकूर क्या देखता।’’ 

यह तो डेवठान की आवाज थी। उसका तकिया कलाम सुनकर ही मैं जान गया था। वह मेरे पीछे खड़ा हँस रहा था। मैंने उपर से नीचे तक देखा उसे - उसी चीर परिचित हुलिए में था। जिस हुलिए में मरांग गोमके के दरबार से विदा हुआ था। नंगे पांव,
उटंग धोती,
खद्दर का लंबा कुरता ओर मैली सी गाँधी टोपी ,
कंधे में तिरंगा झंडा उठाये... अपने मटमैले दांतों को निपोरते हुए मुझे देख रहा था। सिर से पांव तक राजनति में डुबा रहता था। पर राजनीतिक प्रेत को साध साध नहीं पाया। बकडायन होकर रह गया। मतलब उसका माथा जो फिरा... तो फिर ठीक नहीं हुआ। कब ठीक रहे,
कब पटरी से उतर जाए। कहना मुश्किल है। 

‘‘ डेवठान भगत... बहुत दिन बाद?’’ मैंने टोका। 

क्रमशः :-

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‘कौन आजाद हुआ, किसके माथे से गुलामी की सियाही छुटी, मेरे सीने में दर्द है अभी महकूमी का मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है अभी।’ आजादी के 70 साल बाद भी यह सवाल ज्यों का त्यों हैं। रत्नगर्भा झारखण्ड की धरती पर हजारों वर्षों से कई जातियों के लोग रह रहे हैं। जिन्हें आज राजनीति ने बांट कर रख दिया। उनमें से कुछ की माली हालत तो आदिवासियों से भी बदतर है। पर उनका हाल जानना भी लोग जरूरी नहीं समझते। हक अधिकार तो जाने दीजिए। ब्रेख्त ने कहा है - ‘लेखन के जरीये लड़ो’। यह उपन्यास उन्हीं वंचित लोगों को आवाज देने की कोशिश है। यह ना तो देश के खिलाफ है, ना ही किसी जाति समुदाय के खिलाफ। फिर भी जाने अनजाने कुछ कष्टदायक बातें लिख गया हूँ तो क्षमाप्रार्थी हूँ।- मुर्शिद आलम अंसारी
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