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हमारी जमीन

6 अगस्त 2022

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भाग -एक

पिछली दोनों टांगों में सुतली का फंदा लगाया और कस दिया... फिर घसीटते हुए ले चला चैना... उसे जो रात किसी गाड़ी के नीचे आकर चिपटा हो गया था।

अभी बाजारटांड़ पहुचा ही था कि सड़क के दोनों ओर पुलिस की गाड़ियों और लाठियों को देखकर भौंचक्क रह गया। किसी अनहोनी का भय मन में भर गया। बाजारटांड़ में असंख्य पुलिस बल के जवान और सादे लिबास में अधिकारी कर्मचारी! वहीं दुसरी तरफ गाँव वालों की ठाठें मारती भीड़! लगता था घरों से सबके सब उठ पठ के चले आए थे।

चेहरों में रोष,
उत्तेजना का भाव... युवाओं के साथ-साथ महिलाओं के हाथों में भी पारंपरिक हथियार नजर आ रहे थे।

चैना का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। अब उसे पुरे बाजारटांड़ में लाल और सफेद पट्टियों वाला सरना झंडा लहराता साफ नजर आ रहा था। सरना धर्म और आदिवासी संस्कृति का प्रतिक था ये ‘धर्म ध्वज ’! पर अभी इसका अर्थ था - ‘ये जमीन हमारी है।’

उसके समझ में सबकुछ आने लगा।

राँची से पश्चिम में बमुश्किल 20
कि.मी. दूर एन.एच. 75
के किनारे लगने वाला बाजार सब्जियों की खरीद बिक्री के मामले में मशहूर था। इसलिए लाखों रूपये में ‘डाक’ होता था और उससे कई गुणा ‘इनकम’!

सीधी सी बात है - रूपये के अलावा बम बंदूक और नेता गुण्डा के बगैर डाक लेना नामुमकिन!

लेकिन इस कहानी में एक तीखा मोड़ उस वक्त आया,
जब गंदरू पावर पैरवी भीड़ा कर बाजार को आरक्षित करा लिया। आरक्षण का आधार बनाया गया - वहां बाजार लगता है। वह आदिवासियों की खतियानी जमीन है। इसे साबित करने के लिए एक छोर के दुकानदारों को उठाकर बगल की नीजि जमीन में दुकान लगवा दिया गया। उस दिन भी इसी तरह दर्जनों सरना झंडा लहरा उठा था। धीरे-धीरे यह मामला अर्थ से अस्मिता का हो चला था। जो अब अस्तित्व का सवाल बन गया था।

पर जिनके मुँह हड्डी छिनी गई थी वे बाजार को बहस के चैराहे से उठाकर अदालत के कटघरे तक ले गए। जिसका परिणाम था जाँच!

एक सरकारी कमेटी बैठा दी गई - जमीन सरकारी है या गांववालों की जाँच करो।

जाँच चल रही थी।

साथ ही धीरे-धीरे गांव में तनाव भी बढ़ रहा था। गांव दो फाड़ हो चुका था। आदिवासी और सदान में।

  

नापी दल हाजिर है।

कोर्ट से आॅर्डर हुआ है - 5
एकड़ जमीन ... जहां बाजार लगता है। सरकार की है। उसे नापकर अलग कर दो।

‘‘नइ नापने देंगे।’’

विरोध में पुरा गांव इसलिए तो जमा है।

‘‘कईसे नापने देगा?’’ दीर्घश्वास छोड़ता है - ‘‘आधा बाजार की जमीन में तो एक टोला बस गया है। इसके बाद इस्कूल है, चर्च है, उधर गोड़ाईत लोगों का मसना है। अब कितनी जमीन बची बाजार की? अभी अगर नाप लिया, तो कल अतिक्रमण हटाओ कहकर बुलडोजर चला देगा।’’

चैना कुत्ते को लेकर पास की झाड़ियों में फेंका। कमर में खोसा खैनी का डब्बा निकाला... एक फाँक हथेली में लिया... थोड़ा सा रगड़ा... होंठों के हवाले लिया और भीड़ की ओर बढ़ गया।

बोलो उरांव के आंगन में फटे बांस की लठ पर नजर पड़ी। उसने उठा लिया उसे और जोर से पटका जमीन पर ठर्रर्रर्र... की आवाज हुई।

‘‘कोई खाँसेगा नहीं।’’ जोर से अपनी खनकती आवाज में बोला और आदिवासियों की उत्तेजित भीड़ में शामिल हो गया।

पर उसके दिमाग में पिछले महीने भर से गांव में हो रही हलचल एक के बाद एक स्मृतिपटल पर चलायमान थी।

चैना घुसपैठिया था। एक नंबर का शराबी। दारू के चक्कर में गांव का कोना-कोना छान मारता था। और दोस्ती की उसकी पिच्चकड़ आदिवासियों से थी। इसलिए गांव का हाल अहवाल सब मालुम रहता था। अभी इस अनुष्ठान (नापी) के पुरा होने में पुरा का पुरा एक शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष बाकी था कि गांव की हवा बदल चुकी थी। अंधियारी रात की निरवता को घंटे की टन.. टन.. टन भंग करता और ढ़ँके छुपे लोग चल पड़ते। कटहल पीपल की झुरमुटों में आवाजों और प्रेत छायाओं के बीच गरमा गरम बहस चलती। बत्ती बुझाकर मिनिस्टर का अर्दली आता। रात भर जलती सांसों और दहकती आँखों वाले नरमुंड व्युह रचना करते।

पर इस रतजगा में शायद ही कोई बुढ़ा होता था। सब के सब जवानों ने कमान संभाल लिया था। और बुढ़ें को देश निकाला दे दिया था। उन तजुर्बों की उन्हें कोई जरूरत नहीं थी। जो पतन के रास्तों की पहचान करता है।

गंदरू जमीन आसमान एक किए था। खाना पीना तो दूर,
नींद तक हराम हो गई थी उसकी। अगर नापी हो गई तो क्या होगा?
विधायक जी के पास तो जाकर रो ही पड़ा था - ‘‘सवाल एक बाजार का नहीं है बड़का दा। सवाल हमारे अस्तित्व का है। कहने के लिए तो सबकुछ हमारा है। लेकिन कुछ भी नहीं है।’’

विधायक जी कंधे पर हाथ रख दिए और थपथपाते हुए बोले - ‘‘भकुवा हो! इसलिए रोते हो। कुछ नहीं होगा। तुम देखते जाओ। ऐसा वक्त नसीब से मिलता है। सरकारी अमला... अफसरों की फौज... मीडिया का जमावड़ा... बाद में जन्म भर ढूँढोगे तब भी नहीं मिलेगा। बड़ा अच्छा संजोग है। कुछ करना हेागा... कुछ जबरदस्त!’

क्रमशः :-

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रचनाएँ
यह मेरा देश नही है ?
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‘कौन आजाद हुआ, किसके माथे से गुलामी की सियाही छुटी, मेरे सीने में दर्द है अभी महकूमी का मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है अभी।’ आजादी के 70 साल बाद भी यह सवाल ज्यों का त्यों हैं। रत्नगर्भा झारखण्ड की धरती पर हजारों वर्षों से कई जातियों के लोग रह रहे हैं। जिन्हें आज राजनीति ने बांट कर रख दिया। उनमें से कुछ की माली हालत तो आदिवासियों से भी बदतर है। पर उनका हाल जानना भी लोग जरूरी नहीं समझते। हक अधिकार तो जाने दीजिए। ब्रेख्त ने कहा है - ‘लेखन के जरीये लड़ो’। यह उपन्यास उन्हीं वंचित लोगों को आवाज देने की कोशिश है। यह ना तो देश के खिलाफ है, ना ही किसी जाति समुदाय के खिलाफ। फिर भी जाने अनजाने कुछ कष्टदायक बातें लिख गया हूँ तो क्षमाप्रार्थी हूँ।- मुर्शिद आलम अंसारी
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