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अस्थि युद्ध

6 अगस्त 2022

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 वैशाख का महीना है। 

सूरज बांस भर उपर उठते ही आग बरसाने लगता है। लेकिन नापीदल के पहुंचने से पहले ही ग्रामिणों की भीड़ बाजारटांड़ में हाजिर है। कानाफुसियों की कानफोड़ू भिन-भिनाहट से उनकी बेचैनी का पता चलता है। बात आग की तरह फैल गई थी। न्योता बारह पड़हा को पार कर इक्कीस पड़हा तक पहुंच गया था। इसलिए ग्रामिणों से ज्यादा बाहरी चेहरे नजर आ रहे थे। काले तांबई चेहरों पर रोष,
उत्तेजना का भाव। हर वृक्ष,
हर छपरी के नीचे बैठे लोग जुगाली कररहे थे। एक ऐसी बात कर रहे थे। जिसका कोई ओर नहीं था,
कोई छोर नहीं था। 

चैबीसों घंटे,
आठो पहर घर और खेत,
गाय औश्र बकरी में जीवन खपाने वाली महिलायें भी आज अपने उसी ऐतिहासिक तेवर में नजर आ रही थी। जिसके लिए आदिवासी समुदाय प्रसिद्ध है। 

हर बारह बरस में आदिवासी महिलायें ‘जनी शिकार’ के लिए निकलती हैं। उस घटना की याद में जो रोहताश गढ़ की रक्षा करते हुए घटी थी। मगर तब मर्दाना् पोशाक में होती है। पर चेहरे में वही तेज वही ओज होता है,
जो पांच सौ बरस पहले अपनी भूमि की रक्षा के लिए ‘सिनगी दई’ के नेतृत्व में इकट्ठा हुई महिलाओं के चेहरे में थी। 

खैर! तीन तनों वाले कटहल की छांव में झुण्ड बना कर बैठी थी बहुत सी औरतें। गर्मा गर्म बहस चल रही थी उनमें! रघिया जानकारी में सबसे बढ़ जाना चाहती थी। ‘‘सरकार गांव को भगाना चाहता है... नई रहने देगा हमलोगों को... बाजार भी नई लगने देगा... घर दुआर को भी धंसा देगा।’’  

‘‘नई गे छोटकी...।’’ घुचिया उसकी बात काटती हुई बोली- ‘‘जोल्हा लोग बाजार को लुटना चाहता है। हमलोगों को नई चढ़ने देगा बाजार में...।’’ 

‘‘हाँ! ठीके कहती है। उ लोग तो है हो... मगर गंदरू कह कह रहा था अबकारी पलटन आऐगा और दारू हंडिया नई बेचने देगा...।’’ जउनी की बात सुनकर दंग रह गई नीलमनी - ‘‘हाय रे दईया! अइसा! तब कइसे कमा के खायेगा आदमी... कइसे बाल बच्चा पोसेगा?’’ ‘‘लड़ाई झगड़ा होगा का?’’ बिरसी चिंतित नजरों से भीड़ की ओर देखती हुई बोली। ‘‘नइ काकी लड़ाई नई होगा! का बोला था गंदरू नइ सुनी थी का...?’’ रघिया सांत्वना के स्वर में बोली - बस हमलोगों को एतना भर कहना है कि इ जमीन हमलोगों का है। बस! कागज जो आज लिखायेगा... आउर का!’’ 

चिलचिलाती धूप मेें ग्रामिाों का हुजूम अपनी तथाकथित जमीन को बचाने के लिए तैनात है। औरत मर्द बुढ़े बच्चे,
यहाँ तक की आठ दिन का नवजात शिशु भी अपनी माँ की पीठ पर बंधा कसमसा रहा है। और माँ! वह युवती माँ... उसकी आँखों में डर,
विस्मय! वह एकटक पुलिस के जवानों को देख रही है। कैसे खौफनाक जवान दिखाई पड़ते हैं। हाथों में बंदूक थामें,
कमर में पिस्तौल लटकाये... देखकर रीढ़ में सनसनी दौड़ जाती है। उसे याद नहीं कभी इतना भारी पुलिस पलटन देखा हो। 

सड़क पर वाहनों की कतार लगती जा रही है। उधर आम के पेड़ तले कुछ लोग सादे लिबास में बैठे हैं। लिखा-पढ़ी का काम चल रहा है। अमीन जमीन नापने वाली जंजीर सीधा कट रहा है। यही तो कटने देना नहीं है। 

गाँव का नेता गंदरू कई बार कह चुका है। एक-एक टोली गोष्ठी के पास जा कर समझाता है- ‘‘ऐलचना मला... ऐंदेर हूं मल मनो... कत्थन बुझराय ... ऐमन सिर्फ विरोध नन्ना रई। अवकुन अगर चुपेन रओत, तो नेला बओर पद्दन ती भोंग्गा। नेला अमके बआके कि नीम एंेदेर हूं मा नंज्जकर। आर नापी नना बरचका रानर। इद नम्हय खल्ले हिके... नम्हय पुरखर घी हिके... लग्गी इद बाजार नम्है हिके, मसना नम्है हिके... इस्लकूल गिरजाघर नम्है हिके। तब इद सरकारी अल्ला ऐंदेर नापी नना बरचका राअदस? अकुन अगर एम अम्बा चिदन तो खोखा नू पछताना पड़आरो... से ले एमन ड़ईट के अईड़ के राअना पड़ारो...।’’ (घबराने की बात नहीं है... कुछ नहीं होगा... बात को समझो... हमलोगों को सिर्फ विरोध करना है। अगर अभी चुप रह गए तो कल कहेगा गांव से भागो। फिर कल मत कहना तुमलोग कुछ नहीं किए। वह नापने आया है। यह हमारी जमीन है... हमारे पुरखों का है... लगने वालाल बाजार हमारा है... मसना (श्मसान) हमारा है, स्कूल गिरजाघर हमारा है। तब यह सरकारी कुत्ता क्या नापने आया है? अभी अगर हमलोग छोड़ दें, तो बाद में पछताना पड़ेगा। इसलिए हमलोगों को डट के अड़ के रहना पड़ेगा।) 

  

और लोग डट गए अड़ गए। 

तपिश से लगता है मगज पिछलकर एड़ी की ओर चू पड़ेगा। लेकिन महाभारत का चक्रव्यूह रच गया है। आगे-आगे छोटे-छोटे बच्चे,
उनके पीछे औरतें और सबसे पीछे पुरे बाजार टांड़ में छितराये जवान! 

ग्रामिणों का मिजाज समझते देर नहीं लगा एस0डी0ओ0 को। वह अपनी जगह से उठा और भीड़ के करीब आया - 

‘‘देखिये! हम यहां फसाद करने नहीं आए हैं। सरकारी जमीन जहां बाजार लगता है - उसे नापकर अलग कर लेने दीजिए। उसके बाद हमें कुछ नहीं चाहिए। स्कूल चर्च या जिनका घर बाजार की जमीन पर है। उसे हम तोड़ नही रहे हैं। सुनिये! बात सुनिये! हम यहां... देखिए बहन जी! सरकारी काम में बाधा मत डालिए... फाइल... फाइल रख दीजिए वहीं... देखो मिस्टर तुम कानून तोड़ रहे हो। सरकारी आदमियों पर हाथ नहीं उठा सकते...।’’ एस0डी0ओ0 की आवाज गूँजती है। प्रत्युत्तर में...  

‘‘नहीं नापने देंगे.................!’’ 

भीड़ में फुसफुसाहट! 

उत्तेजना! 

किसी ने पत्थर चलाया है! 

एक कांस्टेबल के सिर से खून का फव्वारा...! 

एस0डी0ओ0 गरज रहा है... समझा रहा है... धमका रहा है। पर भीड़ बहरी है। लहर की तरह सनसनी फैलती जा रही है। जैसे काली चीटियों को किसी ने छेड़ दिया हो। चेहरों में रोष ... घृणा! गिद्ध जैसी लाल लाल हजारों आँखों के केन्द्र में है - वह सरकार का कुत्ता... एस.डी.ओ.। 

केच्चा खेन्नस घी ! (गाली) 

लवा घईकड़न्नस घी ! (गाली) 

मारो मादरचोद को...। 

भीड़ के मुह से गाली... हवा में हथियार चमक रहा है। अब तक बाघ ने अपना नाखून छुपा रखा था। अभी अचानक निकाल लिया है - पैने खंजर सा बाघ नक्खा! 

ग्रामिणों के हाथों में लाठी बल्लम बलुआ भुजाली तीर धनुष... नन्हें-नन्हें हाथों में बड़े-बड़े पत्थर! 

‘‘मारो सरकारी कुत्तों को...।’’ गंदरू चिल्लाया। और भीड़ पील पड़ी। 

निडर! 

बेखौफ! 

बेदर्द! 

सरकारी अमले के पास भागने का कोई मौका नहीं। सबसे खतरनाक स्थिति में था एस0डी0ओ0। चक्रव्यूह में फंसा हुआ... आस-पास बच्चे और औरतें... उन्हें लाँघते हुए जंगली सांड़ की तरह लड़के पील पड़े थे उसपर 

‘‘रोको इन्हें...।’’ वह चिल्लाया! 

आँसू गैस! 

लाठीचार्ज! 

हवाई फायरिंग! 

भीड़ में अफरा तफरी! 

मारो... पकडो ... भागो...! 

बाप रे बाप...! 

माय गेएएए...! 

आह...! 

हाय गेलियउ! 

बाजारटांड़ रणक्षेत्र में बदल चुका था। पुलिस और ग्रामिणों में संघर्ष! 

भागदौड़... चीखो पुकार... लहू के फव्वारे...! एस0डी0ओ0 के उपर उसका बाॅडीगार्ड लेट गया है - गदागद, गदागद पड़ रहा है उसकी पीठ पर - लाठी, डंडा, ढेलफोड़ा, पत्थर, हवा में तीन सनसनाता है- आह...! 

गोली- धांय,
धांय, धांय...! 

धूल धुँआ और दहशत! 

भगदड़! 

जो जिधर नहीं चाहता था,
उधर भाग रहा है। चिखते-चिल्लाते... अपनों को पुकारते लोग! पशुओं की तरह भागते मनुष्य!  


क्रमशः :-

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रचनाएँ
यह मेरा देश नही है ?
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‘कौन आजाद हुआ, किसके माथे से गुलामी की सियाही छुटी, मेरे सीने में दर्द है अभी महकूमी का मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है अभी।’ आजादी के 70 साल बाद भी यह सवाल ज्यों का त्यों हैं। रत्नगर्भा झारखण्ड की धरती पर हजारों वर्षों से कई जातियों के लोग रह रहे हैं। जिन्हें आज राजनीति ने बांट कर रख दिया। उनमें से कुछ की माली हालत तो आदिवासियों से भी बदतर है। पर उनका हाल जानना भी लोग जरूरी नहीं समझते। हक अधिकार तो जाने दीजिए। ब्रेख्त ने कहा है - ‘लेखन के जरीये लड़ो’। यह उपन्यास उन्हीं वंचित लोगों को आवाज देने की कोशिश है। यह ना तो देश के खिलाफ है, ना ही किसी जाति समुदाय के खिलाफ। फिर भी जाने अनजाने कुछ कष्टदायक बातें लिख गया हूँ तो क्षमाप्रार्थी हूँ।- मुर्शिद आलम अंसारी
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7 अगस्त 2022
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गोली- धांय, धांय, धांय...!  धूल धुँआ और दहशत!  भगदड़!  जो जिधर नहीं चाहता था, उधर भाग रहा है। चिखते-चिल्लाते... अपनों को पुकारते लोग! पशुओं की तरह भागते मनुष्य!  पदचापों का शोर... उठता गुब्बार! 

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