गोली- धांय,
धांय, धांय...!
धूल धुँआ और दहशत!
भगदड़!
जो जिधर नहीं चाहता था,
उधर भाग रहा है। चिखते-चिल्लाते... अपनों को पुकारते लोग! पशुओं की तरह भागते मनुष्य!
पदचापों का शोर... उठता गुब्बार!
चैना भागकर छोटका पोखर की पीड़ तक जा पहुंचा और सहमी निगाहों से इधर देखने लगा। जहां अब भी हाहाकार मचा था। उसका दिल धड़क रहा था जोर-जोर से... बदन में कंपकंपी... पसीने से सराबोर... सुखे होंठों पर जीभी फेरकर बगल में खड़े रूगना से कहा- ‘‘किसी को लगा का... गोली! ‘‘का पता?’’
रूगना आतंकित फुसफुसाया - हमरा कान को छोछरते पार हुआ था एक ठो... गोली! बाप रे बाप! आज के बाद कभी नइ... केतना बढ़िया हम हुंटार बाजार जा रहे थे। मगर हड़का दिया। नइ रहोगे तो जईरबाना लगेगा।’’
भीड़ भाग चुकी थी। पर अब भी सैकड़ों नजर आ रहे थे सड़क पर। चैना खड़ा सोंचता रहा। जब देखा कोई उपद्रव नजर नहीं आ रहा है... सहमें कदमों से वापस आने लगा।
ज्यादा देर नहीं चला था ये अस्थियुद्ध... पर नजारा बदल चुका था। एस0डी0ओ0 की जिप्सी... टीन का पिचका हुआ डब्बा नजर आ रहा था। सड़क के दोनों ओर दूर तक वाहनों का शीशा टुकड़ों में चमक रहा था।
चिथड़ों में बदले कपड़े,
इधर उधर बेमेल लावारिश पड़े जुते चप्पल। लहू की बूँदें कहाँ-कहाँ गिरी। क्या पता?
प्यासी जमीन ने सब सोख लिया था। पठार की छाती में बहुत आग है। बस उसे हवा देने की जरूरत है।
अरे एएए...!
वहां कोई छटपटा रहा है। चैना दौड़ता है उधर। पानी... पानी... अरे जल्दी लाओ।
भीड़ उसे घेरे खड़ी है। जबरदस्ती उसे पानी पिलाया जा रहा है। लेकिन जबड़ा कस रहा है... दाँत लग गया है... पानी हलक से नीचे नहीं जा रहा... बुलबुला उठता है मुँह से... पानी होंठ के दोनों किनारें से गिर रहा है... और... और... और ओह!
खत्म!
सबकुछ खत्म!
राजनीतिक छल छद्म का एक बवंडर उठा और सबकी सुध बुध खत्म्
और अब जब धीरे-धीरे चेत आ रहा है। तब वहां सन्नाटा पसरा है। एक नौजवान छात्र मरा पड़ा है। उसके माथे के बीचोंबीच गोली लगी है। चेहरे में असंख्य रक्त की धारायें। छटपटाने से पुरे शरीर में धूल मिट्टी! बचे खुचे ग्रामिण अवाक! आतंकित! क्षुब्ध!
विरोध में उतर आए सड़क पर!
स्वान बुद्धि ने सुंध लिया समय की गंध। पल भर में फैसला हुआ...!
रोड जाम करो!!!
रोड जाम हो गया!!!
घायल एस0डी0ओ0 और जवानों को लेकर कुछ पुलिस वाले कब के जा चुके थे। दो एक क्षतिग्रस्त वाहन जो चलने के लायक नहीं थे। सके सिवा बाकी सरकारी अमले का नामो निशान नहीं था। सिवाय माण्डर थाना के थानेदार और जवानों के जो दूर खड़े अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे।
क्या से क्या हो गया था। मेला उठ चुका था। बची खुची जो भीड़ थी वहां-हतप्रभ!
सड़क के बीचों-बीच लिटा दिया गया था लाश को। बगल में चीत्कार करती उसकी माँ के अलावे गांव के लड़के... बेचैनी से टहलते! गुस्से से आते-जाते वाहनों पर पत्थर डंडा चलाते। एक दुसरे को सवालिया निगाहों से घूरते!
अलकतरे की काली सड़क पर वाहनों की लंबी कतार लगती जा रही है। थानेदार जाकर अटक-अटक कर कुछ कहता है। लड़के उसे दुत्कार देते हैं - ‘‘जाओ साला... डी0सी0 को बुलाकर लाओ।
ग्यारह घंटे और कुछ मिनट की रात बीत गई थी। रात भर गांव सहमा सहमा रहा। पर सूर्य की किरणें जैसे जैसे जमीन को छुती फैलती गई चौक की दुकानें भी ख्ुालती गई - बदस्तुर!
प्रसाद ट्रेवल्स रूकी थी... खलासी ने अखबारों का बंडल फेंका... पर हाॅकरो से पहले लोग झपट पड़े थे।
गोली कांड छाया छाया हुआ था सभी अखबारों में... झारखण्ड नामधारी सभी पार्टियां उबल रही थी। सरकारी मशीनरी में हड़कंप मचा हुआ था। आरोप प्रत्यारोप से टेबल कुर्सियां चरमरा रहीं थीं। एक आदिवासी लड़के का मारा जाना... सरकार बैकफुट पर और नेता बिरदरी (प्रतिपक्ष) आंदोलन के मुड में। चैना पानी का मार उठाये आते जाते सुन रहा था टीका टिप्पणी:- आदिवासी महिलाओं बच्चों पर बर्बर अत्याचार!
दिल्ली हिला देंगे एएए...!
वह सुन सुनकर मुस्कराता है। जानता है - इस देश में दलित,
अल्पसंख्यक, आदिवासी मामले कितने संवेदनशील होते हैं (जब कोई कांड हो जाए तब!)। अपनी लुंगी में हाथ पोंछता वह छोटन की पान गुमटी पहुंचता है। वहां कई अखबार बांटे जा रहे हैं।
नीले तिरम्र अंनत आकाश में धरती की ओर दृष्टि गड़ाये चील मँडराता है। उसकी तीक्ष्ण दृष्टि से टेढ़ी मेढ़ी क्यारियों की ओट में छिपता भागता चुहा तक नहीं बच पाता। माँ की आँचल से दूर... थोड़ी दूर खेलने निकला चुजा भी एकाध झपट्टा जरूर खाता है।
हमारे देश के नेतागण भी उसी चील बिरादरी के हैं। जिनकी सारी बौद्धिक क्षमता उनकी जीभ में होती है। उनका चिंतन मुखरित हो उठा था। जिसे आप रोजाना अखबारी भाषा में पढ़ते हैं। इनमें से अधिकांश नेता मेरे गांव को देखना दूर गांव का जो सबसे उंचा बरगद है। उसकी फुनगी को भी नहीं देखे थे पर आज सभी मेरे गांव को लेकर चिंता में गले गले तक डुबे हुए थे।
सुबह शाम चौक पर कोई न कोई चमचमाता बोलेरो, जिप्सी, एम्बेसडर आकर रूकती... शोला बयानी से लोग थर्रा जाते। शहीद को श्रद्धांजलि... उसके हत्यारों की निशानी बताकर वह इनका कार फुर्र हो जाती। रह जाता दिमाग में चस्पाँ होकर सिर्फ इतना कि हर वे आदमी जो मृतक की जाति का नहीं है - हत्यारा है।
पर खून बहना अगर रूक जाए तो घाव धीरे धीरे भरने लगता है। और वक्त तो खुद ही एक मरहम है।
समय बीत रहा था। गांव शांत हो रहाथा। टुटा हृदय जुड़ रहा था। हालांकि टटोलने पर पड़ा हुआ गांठ अनजाने ही टीस उठता था। फिर भी दोनों समुदाय में भाई बंधु का रिश्ता बहाल हो गया था। सबे त्योहार शादी ब्याह में पहले की तरह एक-दूसरे को खोजने पुछने लगे थे। सिर्फ एक दो बार ही इस लय में थोड़ी बाधा उत्पन्न हुई थी। जिसमें एक तो उ स दिन... जिस दिन तिराहे पर मृतक की प्रतिमा का अनावरण होने वाला था।
क्रमशः :-