‘कौन आजाद हुआ, किसके माथे से गुलामी की सियाही छुटी, मेरे सीने में दर्द है अभी महकूमी का मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है अभी।’ आजादी के 70 साल बाद भी यह सवाल ज्यों का त्यों हैं। रत्नगर्भा झारखण्ड की धरती पर हजारों वर्षों से कई जातियों के लोग रह रहे हैं। जिन्हें आज राजनीति ने बांट कर रख दिया। उनमें से कुछ की माली हालत तो आदिवासियों से भी बदतर है। पर उनका हाल जानना भी लोग जरूरी नहीं समझते। हक अधिकार तो जाने दीजिए। ब्रेख्त ने कहा है - ‘लेखन के जरीये लड़ो’। यह उपन्यास उन्हीं वंचित लोगों को आवाज देने की कोशिश है। यह ना तो देश के खिलाफ है, ना ही किसी जाति समुदाय के खिलाफ। फिर भी जाने अनजाने कुछ कष्टदायक बातें लिख गया हूँ तो क्षमाप्रार्थी हूँ।- मुर्शिद आलम अंसारी