- ‘जरूरत ही अविष्कार की जननी है’ । बात तो साधारण ही है, लेकिन इसे समझना पड़ेगा । और यह बहुत जरूरी है की आज के राजनीति क सन्दर्भ में इसे जल्दी समझ लिया जाय जिससे की सही तरह के अफसर सही जगह बैठाने में सहायता हो । क्योंकि शायद प्रथम बार जनता के काम और प्राथमिकताओं को लेकर अख़बारों एवं मीडिया में कुछ बहस हो रही है । वैसे तो किसी व्यक्ति की नाम लेना उचित नहीं किन्तु यह नाम काफी उछाला गया था और यह स्वाभाविक तौर से याद किये जाने योग्य हो चूका है । बात यह है की अब नेता लोकशाही के चुनिन्दा कर्मठ सदस्यों और इसके द्वारा स्थापित स्वतंत्र संस्थाओं एवं रेगुलेटोरों पर विश्वास खो रहे से दिखते हैं । कारण की यह वित्तीय व्यवस्था में हो रहे फ्रॉड के विभिन्न आयामों को समय पर उजागर करने में असमर्थ रहे । पर क्या किसी एजेंसी को श्रीमान खेमका या इन सरीखे व्यक्तिओं की कभी-भी याद आई अथवा क्या किसी पत्रकार ने ऐसा राय व्यक्त किया, अभी तक? इसलिए सोंचा की क्यों न इस लेख में अपनी नाम ना लेने की प्रथा को स्थगित कर दिया जाये और एक नाम की चर्चा कर ही ली जाये । वक्त-बेवक्त लोकशाही के अफसरानों को अपने द्वारा किये गए निर्णयों की समीक्षा करनी भी चाहिए और इस पर स्वतंत्र मशवरा लेना भी चाहिए । अब किसी अफसर को विभिन्न विभागों में भटकाने और ऐसे अफसरों को काम ना दे सकने के लिए भी तो कोई सोचेगा कभी । नहीं तो सरकारों के बदलने का सिलसिला कायम सा ही रहेगा पर कुछ अफसर हाशिये पर ही रहेंगे, वह भी शायद बिना किसी गलती के । और राजनेता अपनी गलती मानने वाले तो हैं नहीं तो यह जरूरी है की इन संथाओं को ही सही तरह के विशेषज्ञों को जल्द तलाश कर उचित स्थान देना पड़े और फिर राजनेताओं के विचारों की पुनः समीक्षा जनसाधारण द्वारा की जा सके ।