दिल्ली में दुकान सीलिंग का मामला राजनीति क तौर पर सुलग रहा है और राजनीतिक रोटियाँ खूब सेकीं जा रही है । मामला जरा टेढ़ा है क्योंकि अदालतें राजनीतिक विशलेषण से बचतीं रहीं हैं । लेकिन इससे भी अदालतें ही कमज़ोर होती हैं और इसका ध्यान रखना चाहिए । अब इस विषय को ही देखिये ! जो पार्टी या पार्टीयां शासन में थीं वे राजनीतिक तौर से अपना पल्ला झार कर अभी के शासन पर दबाव बनाने में व्यस्त हैं । और अभी शासन कर रही पार्टीयां, एक-दूसरे पर वार करके खुद को बचाने में व्यस्त हैं ।
वास्तव में जब सरकार की किसी संस्था द्वारा आधे-अधूरे तरीके से कोई निर्णय लिया जाता है तो उसका खामियाज़ा सिर्फ कुछ लोगों अथवा व्यापार िओं को ही भुगतना पड़ता है । अधिकारी एवं राजनित्ग्य जोकि इस तरह का निर्णय लेते हैं वे साफ़ बच निकलतें हैं । अदालतों को इस परंपरा को बदलना ही पड़ेगा अन्यथा समाज इस तहर के प्रेशर/दबाव के तले दबता चला जाता रहेगा और राजनीतिक रोटियाँ सेकीं जाती रहेंगी । मूल विषय यह है की हमारे यहाँ सरकारी कर्मचारी अपना काम नहीं करें तो उसकी कोई सजा नहीं है । इस बात का खूब फ़ायदा कुछ बड़े अधिकारी एवं राजनीतिक वर्ग उठातें हैं । जैसे की इन दुकानों को लेकर हुआ । कुछ बड़े अधिकारी एवं राजनित्ग्य कुछ निर्णय आधे-अधूरे तरीके से लिए और लोगों को अपने मकान को दुकानों में तबदील करने की छूट दे दी गई । अनेक लोगों ने इस बात का फ़ायेदा उठाया और तब के राज्नीताग्यों को इसका राजनीतिक फ़ायेदा भी हुआ । छोटे अधिकारिओं ने आँखें मूंद रखी थी की ये निर्णय पूरे प्रोसीजर द्वारा नहीं लिया गया । सरकारी मशीनरी के द्वारा नियंत्रित इनमे से कुछ अधिकारिओं ने टैक्स भी वसूल कर लिया, जबकि कार्य यह था की लोगों को प्रोसीजर को पूरा करने को कहते ।
लेकिन मामले का कुछ सालों बाद खुलासा होता है और अदालतें केवल व्यापारी वर्ग पर इसका ठीकरा फोड़ देतीं हैं । अब यह फिर राजनीतिक स्वरुप ले लेता है और अब के नेता फिर राजनीतिक रोटियाँ सकने लगते हैं । अब जिस मामले में सरकारी कर्मचारी भी शामिल हों और टैक्स भी लिया गया हो उस पर राजनित्ग्य केवल व्यापारीयों का समर्थन ही कर सकतें हैं । यदि अदालत चाहती है की नियम का पूर्णतया पालन हो तो उसे नियम तोड़ने वाले सभी लोगों पर कार्यवाही करनी होगी । पुराने कर्मचारीयों एवं राज्नीताग्यों को भी कानूनी प्रक्रिया में शामिल करना पड़ेगा और इससे बचा नहीं जा सकता । अदालतें अबतक इससे बचतीं रही हैं, लेकिन कबतक ? और इस पद्दति से कानून को या इसको पालन करवाने में क्या फ़ायेदा मिल रहा है, इसको भी सोंचना पड़ेगा ?