बैंकिंग घोटाला अब इंस्टिट्यूट ऑफ़ चार्टेड एकाउंट्स को भी सुपुर्द किया गया है । लेकिन यह नहीं बताया गया वे करेंगे क्या । दरसल इंस्टिट्यूट एक सेल्फ गवर्निंग बॉडी यानि की स्थापित अकाउंटेंट के द्वारा एक स्वयं को संचालित करने वाली संस्था है । वे ऑडिटर के कॉन्ट्रैक्ट को समझेंगे और फिर जो उचित लगेगा वो करेंगे । इसमें एक मानक यह भी होता है की ऑडिटर को ऑडिट करने के लिए क्या मुआवजा मिल रहा था । अगर वो अकाउंटेंट कोई और सर्विसेज भी प्रदान करता है तो वह इंस्टिट्यूट की विषय परिधि के बाहर होता है और इंस्टिट्यूट इस पर कोई एक्शन या इसका कोग्निसंस अथवा इसको ध्यान में लेकर कोई निर्णय नहीं ले सकता । लेकिन इस बात का शोर कर-कर की कुछ कड़े कदम उठाये जा रहे हैं, सरकार खाना-पूर्ति कर लेतीं है । वास्तव में इससे किसी को भी कोई फर्क नहीं पड़ता और मुद्दों को भटकने की मुहीम है। मसलन की इतने बड़े फ्रॉड में अगर किसी ऑडिटर को कुछ महीनों के लिए ससपेंड/निष्काषित कर दिया जाये या महज कुछ लाख का फाइन या जुरमाना तो किसी को क्या फर्क पड़ेगा । अपनी सफाई में इंस्टिट्यूट पूरे ऑडिट कॉन्ट्रैक्ट की रकम, जो की कुछ लाख अथवा करोड़ ही होगी, दिखा देगा और उसके अनुपात में जुर्माने की राशी बता देगा । जुर्माने की खाना-पूर्ति हो जाएगी और तब-तक मीडिया जगत आपको दूसरी खबरों की तरफ ले जाएगा और ये बात बेमानी हो चुकी होगी । ये वर्षों से स्थापित परम्परा है जो की चलती आ रही है । दरसल ऑडिटर और वकील दोनों का ही सर्विस-चार्ज का कोई मानक नहीं है । इस कारण यह प्रोफेशनल वर्ग अपने को स्थापित करने के लिए कई तरह के जुगाड़ का सहारा लेते हैं और इस होड़ में फ्रॉड का समर्थन करना भी शामिल है । नियत संस्थाएं जैसे की इंस्टिट्यूट अथवा बार-कौंसिल इनपर चुप्पी साधे रहता है क्योंकि जो बड़े गणमान्य सदस्य हैं वो कई राजनीति क पार्टिओं के करता-धर्ता भी हैं और इस परिपार्टी के समर्थक भी । इससे इन सदस्यों को अपने प्रैक्टिस/सेवाओं का फैलाव करने में सहूलियत ही होती है । इस विषय में मीडिया और कोर्ट/न्यायाधीशों को ही पहल करने की जरूरत है, क्योकि राजनीतिक पार्टियाँ भी इसे आगे ले जाने को तैयार नहीं । अब जबकि यह मुद्दा उछल गया है तब ये मौका है की इसे अंजाम तक ले के जाया जाये ।