गण यानि लोग और तंत्र यानि सिस्टम या व्यवस्था । इस तरह गणतंत्र यानि लोगों द्वारा चुनी हुई व्यवस्था । लेकिन व्यवस्था को चुनने के लिए उसे जानना भी होता है । व्यवस्था का मतलब है की लोंगों का समूह (जिन्हें लोकसेवक या सरकारी कर्मचारी या अधिकारी कहा जाता है) जो की निश्चित प्रक्रिया के तहत व्यवस्थित होते हैं जिसे लोकशाही भी कहा जाता है । वे विधि पूर्वक एक निश्चित प्राणाली या सिस्टम तहत कार्य करते हैं जिसे समय-समय में स्ट्रक्चरल चेंज यानि की संरचनात्मक परिवर्तन के तहत बदला जा सकता है । हम लोग दरसल व्यवस्था का परिवेक्षण एवं संचालन करने वाले प्रतिनीधि चुनते हैं जो की इस लोकशाही को अपने द्वारा किये गए प्रॉमिस या वादे के अनुरूप चला सकें और आपको आउटकम/परिणाम दें सकें जो की उन्होनें अपने
चुनावी घोषणापत्र में किया है । लोगों द्वारा चुनें गए प्रतिनिधि लोकशाही को पालिसी डायरेक्टिव या नीति निर्देष देतें हैं अथवा चल रही नीतिओं का अनुमोदन या फेर-बदल करते हैं जिसे की लोकसेवक स्थापित प्रोसीजर के अनुसार रूल्स और रेगुलेशनस यानि की नियमों और विनियमों के द्वारा इम्प्लेमेंट (लागू) करते हैं । फिर इनके तहत कई तरह के प्रोजेक्ट्स या परियोजनाओं की शुरुआत होती है और ये एक समय अवधि में सम्पन्न होती है । आउटकम या परिणाम इनके नतीजतन स्वतः निकलता है किन्तु नेता का काम है की इसका निरिक्षण करते रहना एवं नीति तथा नियमो और विनियमों को परीक्षित करते रहना ताकि अनुकूल परिणाम निकलें । लोकशाही में संरचनात्मक परिवर्तन एक लंबी प्रक्रिया के तहत किये जाते हैं जिसमे कई एक्सपर्ट्स या विशेषज्ञ की राय समावेषित होती है जो की इससे होने वाले प्रभावों का जयेजा लेने में भी समर्थ हों एवं सटीक विश्लेषण पूर्वानुमान कर सकें। यदि प्रतिनिधि अपने वादे के अनुरूप काम न करें तो जो राजतंत्र होगा वो गणतंत्र एक जनतंत्र होते हुए भी एक राजतंत्र के ही समान है लेकिन इस पर नाममात्र के लिए जनता की सहमती है ।
अब यह जानना जरुरी हो जाता है की ये प्रॉमिस या वादा तथा आउटकम या परिणाम दरसल है क्या । यह वह वादा है जो जन-प्रतिनिधि आपसे करते हैं जो दरसल व्यवस्था में बदलाव को लाने में सहायक हो और लोंगों को वो आउटकम/परिणाम मिल सके जिसके लिए उनहोंने अपने प्रतिनिधि को चुना है । ये आउटकम जनता को राजनीति क पार्टीयाँ अपने घोषणापत्र द्वारा बतातीं हैं,
लेकिन व्यवस्थाओं को समझाने एवं उसमे जो बदलाव किये जायेंगे उसे समझाने अथवा समझने की कोशिश आपको स्वयं करनी है या फिर सन्तुष्ट रहने/होने का नाटक करना है । क्योंकि व्यवस्था में किये जाने वाले बदलावों को समझाने की ज़हमत इन नेताओं अथवा पार्टिओं ने कभी नहीं पाली और ना ही नेता यह करने को तैयार हैं । यह परिपार्टी आज़ादी के पहले से चल रही है और इनफार्मेशन के इस दौर में भी जब की नेता सब बातें त्वीट कर-कर जनता को अपडेट करते हैं, फिर भी कोई भी नेता इस बात को नहीं उठता और मीडिया भी इसमें शामिल है । ऐसा इसलिए है की कोई दूसरी पार्टी भी यह नहीं कर रही है और यह नेताओं के लिए यह अपने-आप में यह एक संपूर्ण कारण है । क्या किसी नेता ने आपको व्यवस्था समझाने की कोशिश की है कभी ? आप सिर्फ नेता को चुनते हैं जो की व्यवस्था का निर्माण अथवा चल रही व्यवस्थाओं का अनुमोदन या उनमे शंशोधन करते हैं एवं उनका संचालन/पर्यवेक्षण करते हैं और आउटकम अथवा परिणाम का अवलोकन आपका काम है । यहाँ पर मीडिया महत्व काफी बढ जाता है लेकिन सरकार इसमें हेर-फेर से चूकतीं है इसका आकलन भी करना पड़ेगा । इसके आलावा जब कोई घटना घट जाती है तो राजनीतिक दल, नेता और मीडिया उसका ठीकरा किसके सर पर फोड़ना है इसका निर्णय करतें हैं तथा उसका पालन पार्टी कार्यकर्ताओं और अधिकारिओं की मिली भगत से करवाते हैं ।
अब लोकशाही सवयं अपने में बदलाव नहीं करेगी जबतक की लोक-प्रतिनिधि उससे कठिन प्रश्न पूछें । कई बार यह भी जरूरी है की लोक-प्रतिनिधि अपने नीति-निर्देशों का स्पष्ठीकरण दें ताकि उसे लागू करने में सहूलियत हो और परिणाम आने में गति मिले । और जब यह नहीं हो रहा हो तो इसके लिए जरूरी है की लोग अपने प्रतिनिधि से कठिन प्रश्न पूछें । ऐसा भी माना जाता है की विरोधी दल इस बात को तर्क संगत तरीके से उठाएंगे पर क्या ऐसा हो रहा है और परिणाम मिल रहें हैं । गत वर्षोँ में विधायिका में क्या हुआ और यह व्यवस्था कितनी कारगर रह पाई ये किसी से छिपा नहीं है । राजनीतिक रेंवरिया अपने समर्थकों में बांटना और विरोधिओं के प्रशनों को भटका देना शायद अब सब पार्टिओं और नेताओं को बखूबी आ गया है और इससे राजनीतिक तकरारें बढ़ी हैं। यही बात इस प्रणाली की कारगरता का द्योतक है की कई नेता एवं पार्टियाँ आज भी अपने को गाँधी, नेहरु या इनके समकालीन नेताओं एवं उनके विचारों की पार्टी के तौर पर याद करती हैं, न की किसी हाल के नेता की पार्टी के तौर पर । यह हास्यास्पद है की लोग किसी हाल फिलहाल के नेता को गणतंत्र को राह दिखाने वाले नेता के तौर पर प्रासंगिक ही ना समझें और उनकी पार्टी या परिवार भी इस बात का समर्थन करें । हालाँकि जिन नेताओं का अभी गणतंत्रीय व्यवस्था में उतना योगदान नहीं,
उनका अतिशय गुणगान और तुलनात्मक प्रतिस्पर्धा भी उतना ही हास्यास्पद है । हमारे स्वतंत्र पत्रकार कभी इस बात को नहीं उठाते और अति प्राचीन नेताओं का गुणगान करने में व्यस्त रहते हैं वह भी बिना किसी विचार के, यह भी कम हास्यास्पद नहीं। हो सकता है की इस विचार को कुछ लोग नक्सलवादी विचार का भी श्रेय या ख़िताब दे दें क्योंकि ये राजनीतिक व्यव्हार एवं समज में प्रचलित प्रथाओं के खिलाफ माना जा सकता है । इससे आगे बड़ते हुए ये भी अक्सर मान लिया जाता है की मीडिया अथवा जौर्नोलिस्ट/पत्रकार अपना नियत काम स्वतः ही करतें है अगर विरोधी न भी करें, पर क्या आप इस बात को विश्वास के साथ कह सकते हैं । अगर ऐसा हो रहा होता तो कठिन प्रशन्न पूछने की इस मुहीम को कोई भी तवज्जो खुद-ब-खुद न मिलती,
मगर ऐसा हुआ नहीं ।
कई तरह के सुधार केवल बेहतर नीति एवं नियमों और विनियमों की रचना से किये जा सकते हैं लेकिन उसकी पहली शर्त है की राजनीतिक ज़िम्मेवारी एवं इस तरह का सुधार करने की मानसिकता । राजनीतज्ञों में कट या सेवा-शुल्क लेने की होड़ के दौरान इस तरह का सुधार नहीं किया जा सकता । लगातार उठ रहे सवालों का स्पष्ठीकरण न देने और स्वयं को स्वयंभू समझने वाले नेताओं का क्या हश्र हुआ यह अब सबको मालूम है, फिर चाहे मीडिया इसे कितना ही दबाना क्यों न चाहे ।अथवा क्या पत्रकारों ने इन सवालों के स्पष्ठीकरण लिए तथा जनता को विभिन्न जुड़े हुए विषयों से अवगत कराया ? क्या अगर ये कार्य सुचारू रूप से किये गए होते तो भी क्या सोशल मीडिया का उतना ही प्रभाव रहता जितना की बताया जा रहा है ? यदि किसी नेता अथवा पत्रकार को किसी संरचनात्मक परिवर्तन की जरुरत महसूस हो रही है तो क्या ऐसा बोला गया या कोई लोधा-कमीशन या किसी अन्य विशिष्ठ व्यक्ति के द्वारा संचालित कमीशन का निर्माण हुआ या अभी हो रहा है और क्या जो जाँच हो रही है वह पूर्णतया स्वतंत्र है । और यह जाँच केवल शुरू के तीन-चार साल पहले की ही जानकारी क्यों सीमित लग रही है, इस पर मीडिया ने कुछ विचार किया । क्या नेता एवं मीडिया यह कह सकते हैं कि सब दुरुस्त है, हुज़ूर ?