- सरकारी बैंकों पर कसते शिकंजे को देखने से यह उम्मीद बढ़ी है कि सरकार कुछ गंभीर है, किन्तु यह सवाल बना रहेगा की वाकई में कितनी । अभी यह नहीं पता की की स्वेछापूर्ण बकायेदारों पर घोषित कार्यवाही की उन्हें बेनकाब किया जाये, यह किस समय से लागू होगा । दरसल बैंकों में ‘नॉन-परफोर्मिंग एसेट्स’ अथवा ‘गैर-निष्पादित आस्तियां’ कोई नयी बात नहीं है, और इसमें से कई इन ‘स्वेच्छापूर्ण बकायेदारों’ के कारण होता है । यह एक पुरानी परीपार्टी सी बन गयी है जिसमें कई उद्योगजगत की हस्तियाँ एवं अधिकारी-नेतावर्ग के गुट जिनमे बैंक अधिकारी, बैंक ऑडिटर्स और कंपनी ऑडिटर्स भी सम्मिलित हैं । अगर यह पिछ्ले पचीस वर्षों के रिकॉर्ड को निलालें तो पायेगे की कई बकायेदारों का कर्ज ख़ारिज भी किया जा चुका है या उन्हें कर्ज-मुक्ति आसान तरीके से दे दी गयी है, पर जो हाल-फिलहाल में डिफ़ॉल्ट हुआ है वे फसें हुए हैं । और ऐसे भी लोग हैं जिन्हें कर्ज-मुक्ति के बाद फिर नये कर्ज दिए गए या इन्ही के परिजनों या इनकी नयी कम्पनी को नये कर्ज दिए गए और फिर डिफ़ॉल्ट हुआ ।
- बैंकों में छोटे बकायेदारों पर तो शिकंजा मजबूत होता है, किन्तु बड़े बकायेदारों के आगे सभी बैंक पस्त पड़ जाते हैं । यहाँ तक की यह कहावत की शकल अख्तियार कर चुका है की ‘अगर बैंक से छोटा कर्ज लें तो यह आपकी समस्या है, मगर अगर बड़ा कर्ज लें तो यह बैंक की समस्या है’ । बैंक इन बड़े बकायेदारों को पुराना कर्ज चुकाने के लिये नये कर्ज स्वेच्छा से देता रहता है एवं इनके संपूर्ण परिवार का खूब ख़याल रखता है एवं उन्हें भी सस्ती दरों पर कर्ज मुहैया करता है । बनिस्पत की इनसे कर्ज-वसूली में सख्ती हो या इनके एवं परिवार के नये कर्जों पर लगाम लगे, अब तो इन्हें विदेश जाने में भी सहुलियत हो गयी है । यह सब इस बात को की पुराने स्वेछापूर्ण बकायेदारों के नये कर्ज लेने पर रिज़र्व बैंक की तरफ से लगाम लगाने के कई अध्यादेश हैं पर इन्हें लागू करना बैंकों की जिम्मेदारी है और न लागू किये जाने पर ऑडिटरओं को इसकी रिपोर्ट करनी है । पर यह नहीं हो रहा और इसके न होने की जानकारी को दबाया भी जाता रहा है तथा सरकारी एवं प्राइवेट मीडिया जगत इस पर खामोश रहे हैं ।
- बावजूद इसके आपको बैंक सम्बंधित कई अन्य समस्याओं के बारे में सविस्तार जानकारी दी जा रही है लेकिन बकायेदारों पर हो रही कार्यवाही पर और इसमें हो रही कोताही पर कोई समाचार माध्यम या पत्रकार चर्चा करने को तैयार नहीं दिख रहा । ऑडिटरओं की गंभीरता और पूरी प्रक्रिया पर रिज़र्व बैंक की उदासीनता को लेकर सवाल तो हैं ही, पर राजनेताओं का आचरण भी गौर-तलब है । यह सब सुप्रीम-कोर्ट की लगातार फटकार के बाद है, तो मामले की गंभीरता को आप स्वयं समझ सकतें हैं या उसे न समझने का नाटक भी करते रह सकते हैं जो की राजनितग्य बखूबी कर भी रहे हैं । यह जरूरी है की इस बात की पूरी पड़ताल हो और नियमों में भी शंशोधन किये जाएँ, जिससे बैंकों में जनता का पैसा सुरक्षित रह सके । बैंकों को सरकारी धन द्वारा निवेश करके उन्हें सुरक्षित रखना भी जनता के धन का अपव्यय ही तो है ।