आजकल की राजनीति में नीरव रह पाना कोई सरल बात नहीं । संभावनाओं के इस खेल में केवल बड़े दिग्गज ही नीरव रह सकते हैं । इससे भी उन्हें शायद कोई सरकारी पद गंवाना ही पड़ता है, किन्तु फिर भी किसी पार्टी दफ्तर के उद्घाटन के लिए पूछ तो लिया जाता ही है । अब आजकल के समय में ये कोई कम बात तो नहीं जब बच्चे बड़े बड़ों की खटिया खड़ी करने को आतुर हों । पर क्या कोई सामान्य कार्यकर्ता ऐसा अफ़्फोर्ड कर सकता है, शायद नहीं । उन्हें अपने लिए जगह तलाशनी ही पड़ती है फिर वह जगह किसी और ही पार्टी में क्यों न हो । शायद यही कारण रहा हो की कई अन्य दिग्गज कार्यकर्ता जो कभी पार्टी की शान रहे हों, वे पार्टी के नये कार्यालय के उद्घाटन में शिरकत न करें । पता नहीं की न्योता था भी की नहीं । कुछ कार्यकर्ता तो पहले से ही विरोधी गुट में शामिल लग रहें हैं । पहले कभी पार्टियाँ कई सारे अंतर-विरोधों के बाद भी एक-दो प्रमुख कारणों से बनी रहतीं थीं । सत्ता की लोलुप्ता के अलावा भी कुछ चीजें अथवा कुछ मूल्य बाकी थे, किन्तु अब ये केवल सत्ता की लड़ाई है और सिकंदर बनने की होड़। इसमें कई ‘नीरव’ पैदा और गायब भी हों रहे हैं और यह रोज होता है, बस समझ के फेर के कारण दिखाई नहीं देता या फिर सत्ता के नशे में चूर लोग ये जानना ना चाहते हों । अब अपने घर से गायब होकर दुसरे के घर में प्रकट होना ही तो ‘नीरव’ हो जाना है । या फिर दूसरे के यहाँ से वापस आ जाना । ये और बात है की जबतक पैसों का लेन-देन न दिखे तो उसे बदलते परिवेश में ‘नीरव होना’ न माना जाये। लेकिन क्या राजनीति के दिग्गज अपनी संध्या में भी ‘नीरव होने’ की सही परिभाषा बता पीयेंगे, ये पता नहीं ।