“अति सर्वत्र वर्जयेत”| जीवन दर्शन के बारे में हमारे पूर्वजों के ज्ञान समुद्र में से निकले इस मोती के बारे में लगभग हम सभी जानते हैं, इस पर मनन भी करते हैं, इसके बारे में अपने लोगों को सावचेत भी करते हैं परन्तु जब इसे व्यवहार में अपनाने की बात आती है तो जाने-अनजाने ही सही, हम सभी से इस अमूल्य ज्ञान की उपेक्षा हो ही जाती है| मैं आज इसी बात पर चिंतन कर रहा था कि चाहे जीवन हो या प्रकृति का कोई भी पहलू हो, गुण हो या दोष हो, लाभ हो या हानि हो, वास्तव में ‘अति’ सब जगह बुरी ही साबित होती है|
सामान्यतया हम समझते हैं कि बुराई या नकारात्मक चीजों की ही अति खराब होती है लेकिन आप देखिए, अच्छी चीजों या सकारात्मक पहलुओं की भी अति हो जाए तो वह भी लाभदायक नहीं होती या उसके अच्छे परिणाम नहीं आते| संभवतः इसी कारण यदि किसी व्यक्ति द्वारा अच्छी प्रवृतियों के प्रति भी अतिवादिता प्रदर्शित की जाए है तो वह नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर सकती है| जैसे व्रत करना, ईश्वर के प्रति कृतज्ञता भाव रखना अच्छी बात है परन्तु देखा जाता है कि कई स्त्रियां खूब व्रत-उपवास करती हैं, कई लोग ईश्वर की पूजा में अतिवादी हो जाते हैं|
मैंने देखा है कि हममें से अधिकतर लोग अंग्रेजी के प्रयोग के दीवाने होकर अतिवादिता के शिकार हो जाते हैं| घर-परिवार में कोई-कोई ही अंग्रेजी समझता है फिर भी शादी या अन्य उत्सवों के निमंत्रण/आमंत्रण कार्ड अंग्रेजी में छपवाए जाते हैं| कार्यालय में अंग्रेजी को लेकर हमारे बहुत से साथी कर्मचारी कैसी-कैसी लकीरें पीटते रहते हैं, हम जानते हैं, जबकि वही कार्य वे अपनी राजभाषा हिंदी में आसानी से कर सकते हैं|
ऐसे ही जब हिंदी भाषा को कार्यालय में अपनाने के जतन किए जाते हैं और विभिन्न माध्यमों से व्यक्तियों को प्रेरित करना आवश्यक होता है तो ऐसे प्रयासों में यदि कोई-कोई व्यक्ति अत्यधिक प्रेरित और भावना के वशीभूत होकर अपने व्यवहार और प्रवृत्ति में अतिवादिता ले आता है और हिंदी को अपनाकर उसका अधिकाधिक या शत-प्रतिशत प्रयोग करने का संकल्प लेता है तो कई बार व्यावहारिकता की उपेक्षा होने से उसका वांछित सकारात्मक परिणाम नहीं मिलता| कभी-कभी तो ऐसे प्रयासों का नकारात्मक प्रभाव होने की ज्यादा संभावना होती है| विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखें तो वह व्यक्ति अच्छा कार्य कर रहा है, उसका निहित उद्देश्य पवित्र है, इसके बावजूद भी वह दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत बनने के बजाय पावन उद्देश्य के लिए स्वयं ही बाधक-सा बन जाता है और इसके परिणाम भी नकारात्मक होने लगते है| कभी कभी तो ऐसा व्यक्ति उपहास का भी पात्र बन जाता है|
अतः यदि हम कोई अच्छा बदलाव लाना चाहते है तो यह आवश्यक है कि पूरी प्रकिया हम संतुलित तरीके से संचालित करें| इसीलिए, शायद हमारे पूर्वज मनीषियों ने और श्रीमद्भागवत गीता ने भी संतुलित पथ पर चलने का पाठ पढ़ाया है जिसे हम मात्र धार्मिक और आध्यात्मिक ज्ञान मानकर दैनिक जीवन में उपेक्षित कर देते हैं|
सभी हिन्दीकर्मी देश के समस्त केन्द्रीय कार्यालयों, कोर्पोरेशन या बैंकों में हिंदी के लिए बहुत ही मेहनत और लगन से, धारा के विपरीत परिस्थितियों में भगीरथ प्रयास कर रहे हैं लेकिन हमें यह भी सावधानी रखनी है कि हमारे प्रयास संतुलित दृष्टिकोण और व्यावहारिकता के श्रृंगार से सज्जित हों, न कि उनमें दीवानापन या आक्रामकता हो| आइए, इसी संतुलित व्यवहार से हम हिंदी की प्रगति के यज्ञ में अपनी आहुति देते रहें|
जय हिंदी, जय हिंद |