एक ग़जल
ज़माने को इतनी सी बात की चुभन हैकि मेरे मिज़ाज में ज़रा आवारापन हैबात कहता हूं तो बेबाक कह देता हूंअपना तो यही अंदाज यही बांकपन है छेङते हो तो इक मेरे दिल को ना छेङोना जाने कितने क़िस्से इसमें दफन हैमुंसिफ़ ओ हाक़िम ओ ज़ालिम सब मिल बैट्ठेअब किस उम्मीद पे कहूं ये मेरा वतन हैशे’र कहने लगे आज ‘बलराज’ जैसे भी