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भाग 2

10 अगस्त 2022

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यथासमय वसंत ऋतु आई। बादल जहां के तहां उड़ गए। आसपास साफ हो गया। इतने में अनायास एक बड़ा ही सुरूपवान् और गौरवर्ण युवा पहाड़ की चोटी पर दिखाई दिया। अहा, उसकी मुसकान जादू से भरी हुई थी। उसे देखते हिमांगिनी का दिल हाथ से जाता रहा। जानते हो वह कौन था? उस नवयुवक का नाम था भुवन भास्कर सिंह। राजकुमारी हिमांगिनी ने अभी अच्छी तरह उसे देखा भी न था कि वह उसके हाथ बिक-सी गई। अपना शरीर, उसका मन, अपना प्राण, अपना सर्वस्व, सभी उसने उसे दे डाला। प्रेमोन्माद की गर्मी से व्याकुल होकर वह सहसा पीली पड़ गई। ऐसा पीलापन उसमें पहले कभी नहीं देखा गया था। पाण्डु और कमला रोग का रोगी भी इतना पीला नहीं पड़ जाता। उसका पत्थर के समान सख्त कलेजा भीतर-ही-भीतर पिघल उठा। उसकी आंखों से आंसू की झड़ी लग गई। उसकी अजब हालत हो गई। एक प्रकार के आतंक, भय और घबराहट ने उसको घेर लिया। वह कांपने-सी लगी। उसके सजीव होने और चलने-फिरने की शक्ति रखने का यह पहला चिह्न था।

हिमांगिनी ने अपने पीले और मुरझाए हुए चेहरे को ऊपर उठाया और कांपते हुए होंठों के बीच से निकलनेवाली लड़खड़ाती हुई आवाज से उस नवयुवक से उसने वार्तालाप आरंभ किया। प्रेम-विह्वल होने पर बलवान् पुरुषों की भी अक्ल ठिकाने नहीं रहती। फिर अबला स्त्रियों की क्या कथा? इस अवसर पर संकोच और सलज्जता ने हिमांगिनी को प्रगल्भता के भरोसे अपने घर का रास्ता लिया। तब प्रगल्भता के समझाने-बुझाने पर उसे बोलने का साहस हो आया। उसने मुसकुराते हुए भुवन भास्कर से इस प्रकार प्रार्थना की-

‘‘हे मनोहरी युवक, तुम चाहे जो हो; तुमने मेरे धैर्य का सर्वथा नाश कर दिया। मुझे यहां रहते अनेक युग हो गए। अब तक मैं यहीं एकांत में चुपचाप अपनी आयु क्षीण करती रही। मैं आज तक यह न जान सकी कि किस तरह अपनी उम्र आराम से काटूं। आज तुम्हारे सुंदर मुख-कमल की ओर एक ही बार निहारने से मैंने यह चीज पा ली जिसकी खोज मुझे हजारों वर्ष से थी। मैं आपकी हो चुकी। मैंने इसी क्षण से अपना हृदय आपको दे डाला। मैं अपना सर्वस्व आपको अर्पण कर चुकी। मुझ पर अब आप दया करें। मेरी तरफ सकरुण दृष्टि से देखिए। मैं एक अनाथ, निराश्रय, निराश चिर-कुमारिका हूं। मेरा जीवन आज तक बिलकुल ही नीरस, निष्फल और कड़वा रहा। अब आप उसे सरस, सफल और मधुर कर देने की कृपा कीजिए।’’

महावीर प्रसाद द्विवेदी की अन्य किताबें

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रचनाएँ
महावीर प्रसाद द्विवेदी की रोचक कहानियाँ
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हिन्दी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है। वह समय हिन्दी के कलात्मक विकास का नहीं, हिन्दी के अभावों की पूर्ति का था। इन्होंने ज्ञान के विविध क्षेत्रों- इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, पुरातत्त्व, चिकित्सा, राजनीति, जीवनी आदि से सामग्री लेकर हिन्दी के अभावों की पूर्ति की। हिन्दी गद्य को माँजने-सँवारने और परिष्कृत करने में यह आजीवन संलग्न रहे।यहाँ तक की इन्होंने अपना भी परिष्कार किया। हिन्दी गद्य और पद्य की भाषा एक करने के लिए (खड़ीबोली के प्रचार-प्रसार के लिए) प्रबल आन्दोलन किया। हिन्दी गद्य की अनेक विधाओं को समुन्नत किया।
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तीन देवता भाग 1

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मेरा नाम वररुचि है। जो एक बार भी किसी अच्छे पंडित के पास बैठा होगा, वह मुझे भली-भांति जानता होगा कि मैं महापंडित हूं। मेरी पंडिताई का हाल ही से समझ लीजिए कि मैंने व्याकरण- संबंधी एक बहुत बड़ा ग्रंथ बन

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भाग 2

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प्रातःकाल मुझसे नहीं रहा गया। उस चकोर-नयनी को देखने की मुझे छटपटी पड़ी। मैं उसके घर की ओर चला। यहां पहुंचकर उसके पिता की फूल-वाटिका में इधर-उधर मैं घूमने लगा कि कहीं उसके दर्शन हो जाएं। मेरा मनोरथ सफल

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भाग 3

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कुछ दिन में मेरी माता इस संसार से चल बसीं। इसका पहले मुझे बहुत शोक हुआ। परंतु धीरे-धीरे वह कम हो गया और उपकोशा के साथ मैं आनंद से वहीं विन्ध्यनगर में रहने लगा। इस बीच में मेरे गुरू विद्याविभूति के अने

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भाग 4

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इस प्रकार मंत्री महाशय से छुट्टी पाकर ज्यों ही उपकोशा थोड़ी दूर आगे गई त्यों ही उसे मार्ग में पुरोहित देवता मिले। उन्होंने भी उसे रोका और अपना अनुराग प्रकट किया। उन्हें भी उपकोशा ने प्रेम-भरी बातों से

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भाग 5

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इसी बीच सुवर्णगुप्त ने कृपा की। सखियों ने कहा, ‘‘सुवर्णगुप्त वररुचि की धरोहर देने आया है। वह कहीं आपको देख न ले। इसलिए आप झटपट छिप जाइए।’’ अतएव न्यायाधीश जी ने भी उसी संदूक में रक्षा पाई। उसमें अब तीन

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भाग 6

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‘‘हे देवता! इस धूर्त ने मेरे स्वामी का धन लौटाने का वादा तुम्हारे सामने किया है। तुमको यह बात स्मरण होगी। अतः उसे तुम सत्य-सत्य राजा के सामने कहो। यदि न कहोगे तो मैं या तो इसी सभा में तुम्हें खोल दूंग

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महारानी चन्द्रिका और भारतवर्ष का तारा

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एक बार, सायंकाल, रानी चन्द्रिका अपनी सभा में अपने रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान थीं। उनके सारे सभासद और अधिकारी अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए सभामंडप की शोभा बढ़ा रहे थे। सभासदों के चारों ओर अनंत तारागण अ

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राजकुमारी हिमांगिनी भाग 1

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पर्वत के सबसे ऊंचे शिखर पर राजकुमारी हिमांगिनी ने अपना घर बनाया। संसार के साधारण जीवों के पास रहना, या उनके साथ हंसना-खेलना उसे जरा भी पसंद न आया। ‘‘सुंदरता और गोरेपन में मैं अपना सानी नहीं रखती; फिर

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भाग 2

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भाग 3

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यह सुनकर भुवन भास्कर ने शिष्टता और प्रेमपूर्ण कोमल वचनों से इस प्रकार उत्तर दिया- ‘‘स्वच्छ, निष्कलंक और सुंदर कुमारिके। तुम्हारी कांति, तुम्हारे रूप-रंग और तुम्हारे टटकेपन ने मुझे प्रसन्न किया; तुम्ह

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