यथासमय वसंत ऋतु आई। बादल जहां के तहां उड़ गए। आसपास साफ हो गया। इतने में अनायास एक बड़ा ही सुरूपवान् और गौरवर्ण युवा पहाड़ की चोटी पर दिखाई दिया। अहा, उसकी मुसकान जादू से भरी हुई थी। उसे देखते हिमांगिनी का दिल हाथ से जाता रहा। जानते हो वह कौन था? उस नवयुवक का नाम था भुवन भास्कर सिंह। राजकुमारी हिमांगिनी ने अभी अच्छी तरह उसे देखा भी न था कि वह उसके हाथ बिक-सी गई। अपना शरीर, उसका मन, अपना प्राण, अपना सर्वस्व, सभी उसने उसे दे डाला। प्रेमोन्माद की गर्मी से व्याकुल होकर वह सहसा पीली पड़ गई। ऐसा पीलापन उसमें पहले कभी नहीं देखा गया था। पाण्डु और कमला रोग का रोगी भी इतना पीला नहीं पड़ जाता। उसका पत्थर के समान सख्त कलेजा भीतर-ही-भीतर पिघल उठा। उसकी आंखों से आंसू की झड़ी लग गई। उसकी अजब हालत हो गई। एक प्रकार के आतंक, भय और घबराहट ने उसको घेर लिया। वह कांपने-सी लगी। उसके सजीव होने और चलने-फिरने की शक्ति रखने का यह पहला चिह्न था।
हिमांगिनी ने अपने पीले और मुरझाए हुए चेहरे को ऊपर उठाया और कांपते हुए होंठों के बीच से निकलनेवाली लड़खड़ाती हुई आवाज से उस नवयुवक से उसने वार्तालाप आरंभ किया। प्रेम-विह्वल होने पर बलवान् पुरुषों की भी अक्ल ठिकाने नहीं रहती। फिर अबला स्त्रियों की क्या कथा? इस अवसर पर संकोच और सलज्जता ने हिमांगिनी को प्रगल्भता के भरोसे अपने घर का रास्ता लिया। तब प्रगल्भता के समझाने-बुझाने पर उसे बोलने का साहस हो आया। उसने मुसकुराते हुए भुवन भास्कर से इस प्रकार प्रार्थना की-
‘‘हे मनोहरी युवक, तुम चाहे जो हो; तुमने मेरे धैर्य का सर्वथा नाश कर दिया। मुझे यहां रहते अनेक युग हो गए। अब तक मैं यहीं एकांत में चुपचाप अपनी आयु क्षीण करती रही। मैं आज तक यह न जान सकी कि किस तरह अपनी उम्र आराम से काटूं। आज तुम्हारे सुंदर मुख-कमल की ओर एक ही बार निहारने से मैंने यह चीज पा ली जिसकी खोज मुझे हजारों वर्ष से थी। मैं आपकी हो चुकी। मैंने इसी क्षण से अपना हृदय आपको दे डाला। मैं अपना सर्वस्व आपको अर्पण कर चुकी। मुझ पर अब आप दया करें। मेरी तरफ सकरुण दृष्टि से देखिए। मैं एक अनाथ, निराश्रय, निराश चिर-कुमारिका हूं। मेरा जीवन आज तक बिलकुल ही नीरस, निष्फल और कड़वा रहा। अब आप उसे सरस, सफल और मधुर कर देने की कृपा कीजिए।’’