कुछ दिन में मेरी माता इस संसार से चल बसीं। इसका पहले मुझे बहुत शोक हुआ। परंतु धीरे-धीरे वह कम हो गया और उपकोशा के साथ मैं आनंद से वहीं विन्ध्यनगर में रहने लगा। इस बीच में मेरे गुरू विद्याविभूति के अनेक शिष्य हो गए। उनमें एक का नाम पाणिनि था। वह मेरे गुरू की स्त्री की बड़ी सेवा करता था। मेरी गुरुवानी इसलिए उस पर बहुत प्रसन्न थीं। उन्होंने पाणिनि को तपस्या के लिए हिमालय पर्वत पर भेज दिया। उसने वहां जाकर घोर तपस्या की। उसकी तपस्या से शंकर प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे सब विद्याओं के प्रवेश का आदि-करण एक नया व्याकरण पढ़ाया। इस व्याकरण को पढ़कर और परम संतुष्ट होकर कई वर्ष पीछे पाणिनी हिमालय से उतरा। वहां से विन्ध्यनगर को आने में जितने प्रसिद्ध-प्रसिद्ध विद्यापीठ थे सबमें पाणिनि ठहरा। उसके साथ शास्त्रार्थ करने में किसी को यश नहीं मिला। इस प्रकार दिग्विजय करते-करते वह विन्ध्यनगर के समीप आ पहुंचा।
पाणिनि की विद्या का वृत्तांत सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। पाणिनि जब विद्याविभूति के पास था तब वह सबसे अधम शिष्यों में गिना जाता था। इसलिए मुझे यह जानने का कौतूहल हुआ कि देखूं पाणिनि अब कितना विद्वान् हो गया है। जब वह विन्ध्यनगर को लौट आया और वहां उसने मेरी प्रशंसा सबके मुख से सुनी तब उससे स्वयं ही न रहा गया। इसलिए मुझे कुछ भी कहना न पड़ा। उसने आप ही शास्त्रार्थ के लिए मुझे ललकारा। नियत समय पर मेरा और उसका शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। सात दिन तक यह शास्त्रार्थ बराबर होता रहा। आठवें दिन मैंने पाणिनि को परास्त किया। परास्त करने के साथ ही एक अद्भुत घटना हुई। आकाश में एक ऐसा घोर नाद हुआ कि उसके होते ही मैं अपना व्याकरण भूल गया! पाणिनि ने फिर शास्त्रार्थ आरंभ किया और क्रम-क्रम से उसने हम सबको जीत लिया!
अब मैं विन्ध्यनगर में मुंह दिखाने के योग्य न रहा। मैं बहुत ही लज्जित हुआ। इसलिए मैंने भी तप करना निश्चित किया। माता मेरी मर ही चुकी थी। केवल उपकोशा थी। उसको समझा-बुझाकर मैंने शंकर की आराधना के लिए हिमालय जाने की अनुमति ले ली। कुछ धन मेरे पास था। उसे मैंने उपकोशा के पास रखना उचित न समझा। इसलिए उसे मैंने सुवर्णगुप्त नामक महाजन के यहां रख दिया और कह दिया कि उपकोशा को जिस समय जितना धन अपेक्षित हो उतना वह देता जाए। इस प्रकार प्रबंध करके मैंने हिमालय जाने के लिए प्रस्थान किया।
उपकोशा पूरी पतिव्रता थी। दिन-रात वह मेरी मंगल-कामना किया करती थी। प्रतिदिन वह नर्मदा-स्नान करने जाया करती थी और सदा व्रत-उपवास भी किया करती थी। इन व्रतों और उपवासों को करने से वह बहुत ही दुबली हो गई। तथापि उसकी शरीर-शोभा कम नहीं हुई। प्रतिपदा का चंद्रमा क्षीण होने पर भी अच्छा लगता है। एक बार, वसंत-ऋतु में, वह स्नान किए सायंकाल घर आ रही थी कि मार्ग में पहले उसे राजा के पुरोहित ने, फिर न्यायाधीश ने और फिर मंत्री ने देखा। उपकोशा को देखते ही वे सब काम के बाणों का निशाना बन गए। वे अपना अधिकार, पद, धर्म सब क्षण में भूल गए। उपकोशा को अकेले आते देख मंत्री ने उसे मार्ग में सहसा रोका। उपकोशा का कलेजा कांपने लगा। परंतु वह बड़ी प्रत्युत्पन्नमति थी। उसकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी। समय की बात उसे झट सूझ जाती थी। उसने कहा, ‘‘मंत्री जी! आपकी जो अभिलाषा है यह मेरी भी है। परंतु मैं कुलकामिनी हूं। पति मेरा विदेश में है। यहां एकांत में अकेले आपसे बातचीत करते यदि हमको कोई देख लेगा तो इसमें मेरी भी बदनामी होगी और आपकी भी। इसलिए आज तो मुझे व्रत है। कल रात को, आप, पहले पहर मेरे घर पधारें। वसंतोत्सव का समय है; सब लोग मेले के झमेले में रहेंगे; कोई आपको देख न सकेगा।’’ इसे मंत्री जी ने स्वीकार किया।