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भाग 3

10 अगस्त 2022

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कुछ दिन में मेरी माता इस संसार से चल बसीं। इसका पहले मुझे बहुत शोक हुआ। परंतु धीरे-धीरे वह कम हो गया और उपकोशा के साथ मैं आनंद से वहीं विन्ध्यनगर में रहने लगा। इस बीच में मेरे गुरू विद्याविभूति के अनेक शिष्य हो गए। उनमें एक का नाम पाणिनि था। वह मेरे गुरू की स्त्री की बड़ी सेवा करता था। मेरी गुरुवानी इसलिए उस पर बहुत प्रसन्न थीं। उन्होंने पाणिनि को तपस्या के लिए हिमालय पर्वत पर भेज दिया। उसने वहां जाकर घोर तपस्या की। उसकी तपस्या से शंकर प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे सब विद्याओं के प्रवेश का आदि-करण एक नया व्याकरण पढ़ाया। इस व्याकरण को पढ़कर और परम संतुष्ट होकर कई वर्ष पीछे पाणिनी हिमालय से उतरा। वहां से विन्ध्यनगर को आने में जितने प्रसिद्ध-प्रसिद्ध विद्यापीठ थे सबमें पाणिनि ठहरा। उसके साथ शास्त्रार्थ करने में किसी को यश नहीं मिला। इस प्रकार दिग्विजय करते-करते वह विन्ध्यनगर के समीप आ पहुंचा।

पाणिनि की विद्या का वृत्तांत सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। पाणिनि जब विद्याविभूति के पास था तब वह सबसे अधम शिष्यों में गिना जाता था। इसलिए मुझे यह जानने का कौतूहल हुआ कि देखूं पाणिनि अब कितना विद्वान् हो गया है। जब वह विन्ध्यनगर को लौट आया और वहां उसने मेरी प्रशंसा सबके मुख से सुनी तब उससे स्वयं ही न रहा गया। इसलिए मुझे कुछ भी कहना न पड़ा। उसने आप ही शास्त्रार्थ के लिए मुझे ललकारा। नियत समय पर मेरा और उसका शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। सात दिन तक यह शास्त्रार्थ बराबर होता रहा। आठवें दिन मैंने पाणिनि को परास्त किया। परास्त करने के साथ ही एक अद्भुत घटना हुई। आकाश में एक ऐसा घोर नाद हुआ कि उसके होते ही मैं अपना व्याकरण भूल गया! पाणिनि ने फिर शास्त्रार्थ आरंभ किया और क्रम-क्रम से उसने हम सबको जीत लिया!

अब मैं विन्ध्यनगर में मुंह दिखाने के योग्य न रहा। मैं बहुत ही लज्जित हुआ। इसलिए मैंने भी तप करना निश्चित किया। माता मेरी मर ही चुकी थी। केवल उपकोशा थी। उसको समझा-बुझाकर मैंने शंकर की आराधना के लिए हिमालय जाने की अनुमति ले ली। कुछ धन मेरे पास था। उसे मैंने उपकोशा के पास रखना उचित न समझा। इसलिए उसे मैंने सुवर्णगुप्त नामक महाजन के यहां रख दिया और कह दिया कि उपकोशा को जिस समय जितना धन अपेक्षित हो उतना वह देता जाए। इस प्रकार प्रबंध करके मैंने हिमालय जाने के लिए प्रस्थान किया।

उपकोशा पूरी पतिव्रता थी। दिन-रात वह मेरी मंगल-कामना किया करती थी। प्रतिदिन वह नर्मदा-स्नान करने जाया करती थी और सदा व्रत-उपवास भी किया करती थी। इन व्रतों और उपवासों को करने से वह बहुत ही दुबली हो गई। तथापि उसकी शरीर-शोभा कम नहीं हुई। प्रतिपदा का चंद्रमा क्षीण होने पर भी अच्छा लगता है। एक बार, वसंत-ऋतु में, वह स्नान किए सायंकाल घर आ रही थी कि मार्ग में पहले उसे राजा के पुरोहित ने, फिर न्यायाधीश ने और फिर मंत्री ने देखा। उपकोशा को देखते ही वे सब काम के बाणों का निशाना बन गए। वे अपना अधिकार, पद, धर्म सब क्षण में भूल गए। उपकोशा को अकेले आते देख मंत्री ने उसे मार्ग में सहसा रोका। उपकोशा का कलेजा कांपने लगा। परंतु वह बड़ी प्रत्युत्पन्नमति थी। उसकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी। समय की बात उसे झट सूझ जाती थी। उसने कहा, ‘‘मंत्री जी! आपकी जो अभिलाषा है यह मेरी भी है। परंतु मैं कुलकामिनी हूं। पति मेरा विदेश में है। यहां एकांत में अकेले आपसे बातचीत करते यदि हमको कोई देख लेगा तो इसमें मेरी भी बदनामी होगी और आपकी भी। इसलिए आज तो मुझे व्रत है। कल रात को, आप, पहले पहर मेरे घर पधारें। वसंतोत्सव का समय है; सब लोग मेले के झमेले में रहेंगे; कोई आपको देख न सकेगा।’’ इसे मंत्री जी ने स्वीकार किया।

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महावीर प्रसाद द्विवेदी की रोचक कहानियाँ
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हिन्दी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है। वह समय हिन्दी के कलात्मक विकास का नहीं, हिन्दी के अभावों की पूर्ति का था। इन्होंने ज्ञान के विविध क्षेत्रों- इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, पुरातत्त्व, चिकित्सा, राजनीति, जीवनी आदि से सामग्री लेकर हिन्दी के अभावों की पूर्ति की। हिन्दी गद्य को माँजने-सँवारने और परिष्कृत करने में यह आजीवन संलग्न रहे।यहाँ तक की इन्होंने अपना भी परिष्कार किया। हिन्दी गद्य और पद्य की भाषा एक करने के लिए (खड़ीबोली के प्रचार-प्रसार के लिए) प्रबल आन्दोलन किया। हिन्दी गद्य की अनेक विधाओं को समुन्नत किया।
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तीन देवता भाग 1

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मेरा नाम वररुचि है। जो एक बार भी किसी अच्छे पंडित के पास बैठा होगा, वह मुझे भली-भांति जानता होगा कि मैं महापंडित हूं। मेरी पंडिताई का हाल ही से समझ लीजिए कि मैंने व्याकरण- संबंधी एक बहुत बड़ा ग्रंथ बन

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भाग 2

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प्रातःकाल मुझसे नहीं रहा गया। उस चकोर-नयनी को देखने की मुझे छटपटी पड़ी। मैं उसके घर की ओर चला। यहां पहुंचकर उसके पिता की फूल-वाटिका में इधर-उधर मैं घूमने लगा कि कहीं उसके दर्शन हो जाएं। मेरा मनोरथ सफल

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भाग 4

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इस प्रकार मंत्री महाशय से छुट्टी पाकर ज्यों ही उपकोशा थोड़ी दूर आगे गई त्यों ही उसे मार्ग में पुरोहित देवता मिले। उन्होंने भी उसे रोका और अपना अनुराग प्रकट किया। उन्हें भी उपकोशा ने प्रेम-भरी बातों से

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भाग 5

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इसी बीच सुवर्णगुप्त ने कृपा की। सखियों ने कहा, ‘‘सुवर्णगुप्त वररुचि की धरोहर देने आया है। वह कहीं आपको देख न ले। इसलिए आप झटपट छिप जाइए।’’ अतएव न्यायाधीश जी ने भी उसी संदूक में रक्षा पाई। उसमें अब तीन

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भाग 6

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‘‘हे देवता! इस धूर्त ने मेरे स्वामी का धन लौटाने का वादा तुम्हारे सामने किया है। तुमको यह बात स्मरण होगी। अतः उसे तुम सत्य-सत्य राजा के सामने कहो। यदि न कहोगे तो मैं या तो इसी सभा में तुम्हें खोल दूंग

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महारानी चन्द्रिका और भारतवर्ष का तारा

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एक बार, सायंकाल, रानी चन्द्रिका अपनी सभा में अपने रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान थीं। उनके सारे सभासद और अधिकारी अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए सभामंडप की शोभा बढ़ा रहे थे। सभासदों के चारों ओर अनंत तारागण अ

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राजकुमारी हिमांगिनी भाग 1

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पर्वत के सबसे ऊंचे शिखर पर राजकुमारी हिमांगिनी ने अपना घर बनाया। संसार के साधारण जीवों के पास रहना, या उनके साथ हंसना-खेलना उसे जरा भी पसंद न आया। ‘‘सुंदरता और गोरेपन में मैं अपना सानी नहीं रखती; फिर

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यथासमय वसंत ऋतु आई। बादल जहां के तहां उड़ गए। आसपास साफ हो गया। इतने में अनायास एक बड़ा ही सुरूपवान् और गौरवर्ण युवा पहाड़ की चोटी पर दिखाई दिया। अहा, उसकी मुसकान जादू से भरी हुई थी। उसे देखते हिमांगिनी

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भाग 3

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यह सुनकर भुवन भास्कर ने शिष्टता और प्रेमपूर्ण कोमल वचनों से इस प्रकार उत्तर दिया- ‘‘स्वच्छ, निष्कलंक और सुंदर कुमारिके। तुम्हारी कांति, तुम्हारे रूप-रंग और तुम्हारे टटकेपन ने मुझे प्रसन्न किया; तुम्ह

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