इस प्रकार मंत्री महाशय से छुट्टी पाकर ज्यों ही उपकोशा थोड़ी दूर आगे गई त्यों ही उसे मार्ग में पुरोहित देवता मिले। उन्होंने भी उसे रोका और अपना अनुराग प्रकट किया। उन्हें भी उपकोशा ने प्रेम-भरी बातों से प्रसन्न करके, दूसरे दिन-रात के दूसरे पहर अपने घर आने की कृपा करने के लिए उनसे निवेदन किया। पुरोहितजी को पुलकित करके कुछ दूर उपकोशा आगे गई ही थी कि न्यायाधीश जी ने, एक गली में, अपनी भुजवल्ली से उसे बांधना चाहा। उपकोशा ने उनकी भी अभिलाषा पूर्ण करने का वचन देकर रात के तीसरे पहर अपने घर को पवित्र करने की प्रार्थना की। इस प्रकार इन तीनों प्रेमियों से छुटकारा पाकर वह किसी प्रकार घर पहुंची। यहां उसने अपनी सखी से मार्ग का सारा वृत्तांत कांपते हुए वर्णन किया। उसने कहा, ‘‘मेरी सुंदरता को धिक्कार है। जिस कुल स्त्री का पति घर पर नहीं है उसका मर जाना ही अच्छा है।’’ इस प्रकार खेद प्रकट करके और मेरा बारंबार स्मरण करके बीती हुई घटना को सोचती हुई उस रात उपकोशा निराहार ही पड़ी रही।
सबेरे पूजन-पाठ और ब्राह्मणों को दक्षिणा देने के लिए उपकोशा को कुछ धन की आवश्यकता हुई। इसलिए उसने अपनी सखी को सुवर्णगुप्त के पास भेजा कि वह मेरे रखे हुए धन में से कुछ ले आवे। सुवर्णगुप्त ने धन तो दिया नहीं परंतु उपकोशा के घर स्वयं आने की कृपा की। घर आकर एकांत में उपकोशा से उसने कहा, ‘‘सुंदरी! तुम्हारे स्मरण में मुझे निद्रा नहीं आती; भूख-प्यास जाती रही है; काम-काज में जी नहीं लगता; अतएव मुझे प्राणदान दीजिए। मेरा अंगीकार करके मेरी अभिलाषा पूरी कीजिए। जो कुछ धन तुम्हारे स्वामी का मेरे पास रखा है वहीं नहीं, मैं अपनी भी सारी संपत्ति तुम्हारे लिए देने को तैयार हूं।’’ इन बातों को सुनकर उपकोशा सूख गई; परंतु धीरज धरकर, उसी दिन, रात के चौथे पहर सुवर्णगुप्त को भी आने के लिए उसने निमंत्रण दिया।
चारों प्रेमी अपने-अपने मन में मनोमोदक खाने लगे। इधर उपकोशा ने केशर-कस्तूरी आदि सुगंधित पदार्थों को मिलाकर बहुत-सा काजल तैयार कराया। उस काजल को एक कुंड में उसने भराया और उसी में बहुत-सा तेल डलवा दिया। उसी तेल से डूबे हुए चार कौपीन भी उसने तैयार कराए। यथासमय पहले पहर मंत्रीजी पधारे। उपकोशा बड़े आदर से उठकर मिली। परंतु उसने कहा-आपको पहले स्नान कर लेना चाहिए। बिना स्नान किए मैं आपको कैसे स्पर्श करूं?
मंत्रीजी ने स्नान करना स्वीकार किया। उपकोशा की दो सखियां उसे भीतर अंधेरे में ले गई। वहां उसके वस्त्राभूषण उतारकर उसको वही तेल और काजल से भीगा हुआ कौपीन उन्होंने पहनाया। स्नान के पहले सुगंधित पदार्थों का अभ्यंग (उबटन) लगाया जाता है। शरीर में वही उबटन लगाने के बहाने उन सखियों ने पूर्वोक्त कुंड की कालिख उसके शरीर में खूब मली। सखियां अभ्यंग कर ही रही थी कि पुरोहित देवता आ गए। उनका आगमन सुनकर सखियों ने कहा कि वररुचि के मित्र पुरोहित जी किसी काम से आए हैं। अतः आप इस संदूक के भीतर हो जाइए। एक लंबी-चौड़ी संदूक पहले ही से तैयार रखी गई थी। उसमें हवा जाने का मार्ग था; परंतु ऊपर से बड़ी मजबूत कुंडी लगी थी। इस प्रकार भय से बचने के लिए मंत्री को संदूक के भीतर चुपचाप बैठे रहने की सलाह देकर सखियों ने पुरोहित जी की भी पूर्ववत् सेवा आरंभ की। उनको भी उन्होंने वही कौपीन पहनाया और स्नान करने के पहले शरीर में उबटन लगाना आरंभ किया। तीसरे पहर न्यायाधीश जी का आगमन हुआ। उनको आया जान सखियों ने पुरोहित जी से कहा कि जान पड़ता है आपके आने का समाचार न्यायाधीश को मिल गया। इसीलिए वे आपको पकड़ने आए हैं। आप चुपचाप इस संदूक के भीतर बैठ जाइए। इस प्रकार पुरोहित को भी उसी संदूक में उन्होंने बंद किया। यथाक्रम न्यायाधीश के शरीर में भी उबटन-तेल लगने लगा।