इसी बीच सुवर्णगुप्त ने कृपा की। सखियों ने कहा, ‘‘सुवर्णगुप्त वररुचि की धरोहर देने आया है। वह कहीं आपको देख न ले। इसलिए आप झटपट छिप जाइए।’’ अतएव न्यायाधीश जी ने भी उसी संदूक में रक्षा पाई। उसमें अब तीन मनुष्य हो गए, परंतु उस अंधेरी कोठरी में वे परस्पर एक दूसरे को पहचान न सकते थे और चुपचाप कांपते हुए उसी में पड़े थे।
सुवर्णगुप्त के आने पर उपकोशा ने उसका बड़ा आदर किया और दीपक जलाकर उसी कोठरी में, जहां वह संदूक रखी थी, वह उसे ले गई। वहां उसने बड़ी नम्रता से अपना धन लौटा देने की सुवर्णगुप्त से प्रार्थना की। सुवर्णगुप्त ने कहा, ‘‘मैं पहले ही वादा कर चुका हूं कि जो कुछ धन तुम्हारे स्वामी का मेरे पास रखा है, मैं उसे ही नहीं, अपना भी धन देने को तैयार हूं।’’ जब सुवर्णगुप्त यह कह चुका तब संदूक की ओर उंगली उठाकर उपकोशा बोली, ‘‘हे संदूक के देवता! सुनो, सुवर्णगुप्त क्या कहते हैं। इनके वादे को भूल मत जाना।’’ यह कहकर उपकोशा ने दीपक बुझा दिया। सखियों ने पूर्ववत् बहाना बतलाकर सुवर्णगुप्त को कौपीन पहनाया और अभ्यंग आरंभ किया। थोड़ी ही देर में सबेरा हो गया। सुवर्णगुप्त के हाथ जोड़ने पर भी उसे उसके वस्त्राभूषण न मिले। सखियों ने उसकी गरदन में हाथ लगाकर जबरदस्ती उसे उसी दशा में घर से निकाल दिया। एक छोटा-सा कौपीन पहने और शरीर भर काजल लिपटाये हुए सुवर्णगुप्त शीघ्रता से अपने घर की ओर नंगा ही भागा। काले देव का सा उसका यह विलक्षण रूप देखकर कुत्ते, भूंकते हुए, उसके पीछे-पीछे दौड़े। वह बेचारा किसी प्रकार अपने घर पहुंचा। वहां अपने सेवकों से काजल धुलाते समय, लज्जा के मारे, मुंह तक उनके सामने वह न कर सका। दुराचारियों की यही दशा होती है।
दिन निकलते ही उपकोशा राजा प्रतापादित्य की सभा में पहुंची। वहां इस प्रकार बातचीत हुईं-
उपकोशा, ‘‘महाराज! सुवर्णगुप्त मेरे स्वामी का रखा हुआ धन हजम करना चाहता है। मैंने बहुत मांगा; परंतु वह नहीं देता।’’
राजा, ‘‘सुवर्णगुप्त को तुरंत हाजिर करो।’’
राजा की आज्ञा पाकर दो मनुष्य उसी क्षण दौड़े गए और सुवर्णगुप्त को ले आए। उसे सम्मुख खड़े देख राजा ने पूछा-
‘‘सुवर्णगुप्त! वररुचि की धरोहर तुम क्यों नहीं देते?’’
सुवर्णगुप्त, ‘‘महाराज! मेरे पास एक कौड़ी भी नहीं रखी; मैं दूं क्या? उपकोशा झूठ बोलती है!’’ वह उपकोशा पर जल रहा था; भला क्यों वह उसकी धरोहर स्वीकार करता!
राजा, ‘‘उपकोशा! तुमने सुना सुवर्णगुप्त ने क्या कहा? कोई तुम्हारा साक्षी है?’’
उपकोशा, ‘‘हां महाराज! मेरे तीन देवता साक्षी हैं। विदेश जाने के पहले मेरे स्वामी ने उन तीनों को संदूक में बंद कर दिया था। उन्हीं के सामने इस धूर्त ने धन का रखा जाना स्वीकार किया है। आप यदि चाहें तो उस बंदूक को मंगाकर उन देवताओं से पूछ लें।’’
यह सुनकर राजा को आश्चर्य और कुतूहल दोनों एक ही साथ हुए। उसने उस संदूक के लाये जाने की आज्ञा दी। कुछ देर में सात-आठ आदमी उसे बड़ी कठिनता से उठाकर सभा में लाये। उसके बीच सभा में रखी जाने पर उपकोशा बोली-