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भाग 6

10 अगस्त 2022

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‘‘हे देवता! इस धूर्त ने मेरे स्वामी का धन लौटाने का वादा तुम्हारे सामने किया है। तुमको यह बात स्मरण होगी। अतः उसे तुम सत्य-सत्य राजा के सामने कहो। यदि न कहोगे तो मैं या तो इसी सभा में तुम्हें खोल दूंगी या तुमको संदूक समेत जला दूंगी।’’ यह सुनकर उस संदूक के भीतर के तीनों मनुष्य बहुत ही भयभीत हुए। उन्होंने धीरे-धीरे कहा, ‘‘सुवर्णगुप्त झूठा है; उसने वररुचि की धरोहर अवश्य रखी है और उसे वापस देने का वादा भी किया है।’’ यह सुनकर सुवर्णगुप्त ने राजा और उपकोशा से क्षमा मांगी और वररुचि का सारा धन देकर झूठ बोलने और धोखा देने के अपराध में राजा की आज्ञा से बहुत-सा धन-दंड भी उसने दिया।

यह हो चुकने पर राजा ने उपकोशा की अनुमति से सभा में वह संदूक खुलवाई। खोलने पर वे तीनों पुरुष काजल से लिपटे हुए उसके भीतर से निकले! सबने उन्हें पहचाना। उनके रूप को देखकर सारी सभा के पेट में हंसते-हंसते बल पड़ गए। राजा ने उपकोशा से उसका वृत्तांत पूछा। उपकोशा ने उनका सारा चरित वर्णन किया। उनकी दुःशीलता का वृत्तांत सुनकर राजा प्रतापादित्य बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने उन तीनों का सर्वस्व छीनकर उनको अपने देश से निकाल दिया। उपकोशा को राजा ने, उस दिन से अपनी बहन माना और उसे बहुत-सा धन और वस्त्रालंकार देकर विदा किया।

कुछ दिन बाद मैं शंकर को प्रसन्न करके और उनसे इच्छानुकूल वर पाकर घर लौट आया। आकर मैंने उपकोशा की चतुरता और उन तीन पुरुषों की दुःशीलता का वृत्तांत सुना। उपकोशा के पतिव्रत पर मैं अतिशय प्रसन्न हुआ और उस दिन से फिर मैं उससे एक घड़ी भर के लिए भी जुदा नहीं हुआ।

अपनी प्रियतमा उपकोशा के इस अद्भुत चरित को मैंने अपने मित्र सोमदेव से लिख रखने के लिए कहा। उसने इसी क्षण इसे लिख लिया। वही मैंने आज यहां पर तुम्हें सुनाया है। तुमको मेरी शपथ है, इसे सच समझना।

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हिन्दी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है। वह समय हिन्दी के कलात्मक विकास का नहीं, हिन्दी के अभावों की पूर्ति का था। इन्होंने ज्ञान के विविध क्षेत्रों- इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, पुरातत्त्व, चिकित्सा, राजनीति, जीवनी आदि से सामग्री लेकर हिन्दी के अभावों की पूर्ति की। हिन्दी गद्य को माँजने-सँवारने और परिष्कृत करने में यह आजीवन संलग्न रहे।यहाँ तक की इन्होंने अपना भी परिष्कार किया। हिन्दी गद्य और पद्य की भाषा एक करने के लिए (खड़ीबोली के प्रचार-प्रसार के लिए) प्रबल आन्दोलन किया। हिन्दी गद्य की अनेक विधाओं को समुन्नत किया।
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तीन देवता भाग 1

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भाग 2

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प्रातःकाल मुझसे नहीं रहा गया। उस चकोर-नयनी को देखने की मुझे छटपटी पड़ी। मैं उसके घर की ओर चला। यहां पहुंचकर उसके पिता की फूल-वाटिका में इधर-उधर मैं घूमने लगा कि कहीं उसके दर्शन हो जाएं। मेरा मनोरथ सफल

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भाग 3

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कुछ दिन में मेरी माता इस संसार से चल बसीं। इसका पहले मुझे बहुत शोक हुआ। परंतु धीरे-धीरे वह कम हो गया और उपकोशा के साथ मैं आनंद से वहीं विन्ध्यनगर में रहने लगा। इस बीच में मेरे गुरू विद्याविभूति के अने

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भाग 4

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इस प्रकार मंत्री महाशय से छुट्टी पाकर ज्यों ही उपकोशा थोड़ी दूर आगे गई त्यों ही उसे मार्ग में पुरोहित देवता मिले। उन्होंने भी उसे रोका और अपना अनुराग प्रकट किया। उन्हें भी उपकोशा ने प्रेम-भरी बातों से

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भाग 5

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इसी बीच सुवर्णगुप्त ने कृपा की। सखियों ने कहा, ‘‘सुवर्णगुप्त वररुचि की धरोहर देने आया है। वह कहीं आपको देख न ले। इसलिए आप झटपट छिप जाइए।’’ अतएव न्यायाधीश जी ने भी उसी संदूक में रक्षा पाई। उसमें अब तीन

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महारानी चन्द्रिका और भारतवर्ष का तारा

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एक बार, सायंकाल, रानी चन्द्रिका अपनी सभा में अपने रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान थीं। उनके सारे सभासद और अधिकारी अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए सभामंडप की शोभा बढ़ा रहे थे। सभासदों के चारों ओर अनंत तारागण अ

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राजकुमारी हिमांगिनी भाग 1

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पर्वत के सबसे ऊंचे शिखर पर राजकुमारी हिमांगिनी ने अपना घर बनाया। संसार के साधारण जीवों के पास रहना, या उनके साथ हंसना-खेलना उसे जरा भी पसंद न आया। ‘‘सुंदरता और गोरेपन में मैं अपना सानी नहीं रखती; फिर

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भाग 3

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