‘‘हे देवता! इस धूर्त ने मेरे स्वामी का धन लौटाने का वादा तुम्हारे सामने किया है। तुमको यह बात स्मरण होगी। अतः उसे तुम सत्य-सत्य राजा के सामने कहो। यदि न कहोगे तो मैं या तो इसी सभा में तुम्हें खोल दूंगी या तुमको संदूक समेत जला दूंगी।’’ यह सुनकर उस संदूक के भीतर के तीनों मनुष्य बहुत ही भयभीत हुए। उन्होंने धीरे-धीरे कहा, ‘‘सुवर्णगुप्त झूठा है; उसने वररुचि की धरोहर अवश्य रखी है और उसे वापस देने का वादा भी किया है।’’ यह सुनकर सुवर्णगुप्त ने राजा और उपकोशा से क्षमा मांगी और वररुचि का सारा धन देकर झूठ बोलने और धोखा देने के अपराध में राजा की आज्ञा से बहुत-सा धन-दंड भी उसने दिया।
यह हो चुकने पर राजा ने उपकोशा की अनुमति से सभा में वह संदूक खुलवाई। खोलने पर वे तीनों पुरुष काजल से लिपटे हुए उसके भीतर से निकले! सबने उन्हें पहचाना। उनके रूप को देखकर सारी सभा के पेट में हंसते-हंसते बल पड़ गए। राजा ने उपकोशा से उसका वृत्तांत पूछा। उपकोशा ने उनका सारा चरित वर्णन किया। उनकी दुःशीलता का वृत्तांत सुनकर राजा प्रतापादित्य बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने उन तीनों का सर्वस्व छीनकर उनको अपने देश से निकाल दिया। उपकोशा को राजा ने, उस दिन से अपनी बहन माना और उसे बहुत-सा धन और वस्त्रालंकार देकर विदा किया।
कुछ दिन बाद मैं शंकर को प्रसन्न करके और उनसे इच्छानुकूल वर पाकर घर लौट आया। आकर मैंने उपकोशा की चतुरता और उन तीन पुरुषों की दुःशीलता का वृत्तांत सुना। उपकोशा के पतिव्रत पर मैं अतिशय प्रसन्न हुआ और उस दिन से फिर मैं उससे एक घड़ी भर के लिए भी जुदा नहीं हुआ।
अपनी प्रियतमा उपकोशा के इस अद्भुत चरित को मैंने अपने मित्र सोमदेव से लिख रखने के लिए कहा। उसने इसी क्षण इसे लिख लिया। वही मैंने आज यहां पर तुम्हें सुनाया है। तुमको मेरी शपथ है, इसे सच समझना।
महावीर प्रसाद द्विवेदी की अन्य किताबें
महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के (बैसवारा) रायबरेली जिले के दौलतपुर गाँव में 15 मई 1864 को हुआ था। इनके पिता का नाम पं॰ रामसहाय दुबे था। ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। धनाभाव के कारण इनकी शिक्षा का क्रम अधिक समय तक न चल सका। इन्हें जी आई पी रेलवे में नौकरी मिल गई। 25 वर्ष की आयु में रेल विभाग अजमेर में 1 वर्ष का प्रवास। नौकरी छोड़कर पिता के पास मुंबई प्रस्थान एवं टेलीग्राफ का काम सीखकर इंडियन मिडलैंड रेलवे में तार बाबू के रूप में नियुक्ति। अपने उच्चाधिकारी से न पटने और स्वाभिमानी स्वभाव के कारण 1904 में झाँसी में रेल विभाग की 200 रुपये मासिक वेतन की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया सरस्वती'के संपादन कार्य में लग गये। 200 रूपये मासिक की नौकरी को त्यागकर मात्र 20 रूपये प्रतिमास पर सरस्वती के सम्पादक के रूप में कार्य करना उनके त्याग का परिचायक है। संपादन-कार्य से अवकाश प्राप्त कर द्विवेदी जी अपने गाँव चले आए।
महावीरप्रसाद द्विवेदी हिन्दी के पहले लेखक थे, जिन्होंने केवल अपनी जातीय परंपरा का गहन अध्ययन ही नहीं किया था, बल्कि उसे आलोचकीय दृष्टि से भी देखा था। उन्होंने अनेक विधाओं में रचना की। कविता, कहानी, आलोचना, पुस्तक समीक्षा, अनुवाद, जीवनी आदि विधाओं के साथ उन्होंने अर्थशास्त्र, विज्ञान, इतिहास आदि अन्य अनुशासनों में न सिर्फ विपुल मात्रा में लिखा, बल्कि अन्य लेखकों को भी इस दिशा में लेखन के लिए प्रेरित किया। द्विवेदी जी केवल कविता, कहानी, आलोचना आदि को ही साहित्य मानने के विरुद्ध थे। वे अर्थशास्त्र, इतिहास, पुरातत्व, समाजशास्त्र आदि विषयों को भी साहित्य के ही दायरे में रखते थे। वस्तुतः स्वाधीनता, स्वदेशी और स्वावलंबन को गति देने वाले ज्ञान-विज्ञान के तमाम आधारों को वे आंदोलित करना चाहते थे। इस कार्य के लिये उन्होंने सिर्फ उपदेश नहीं दिया, बल्कि मनसा, वाचा, कर्मणा स्वयं लिखकर दिखाया। अंत में 21 दिसम्बर 1938 को रायबरेली में इनका स्वर्गवास हो गया।D