यह सुनकर भुवन भास्कर ने शिष्टता और प्रेमपूर्ण कोमल वचनों से इस प्रकार उत्तर दिया-
‘‘स्वच्छ, निष्कलंक और सुंदर कुमारिके। तुम्हारी कांति, तुम्हारे रूप-रंग और तुम्हारे टटकेपन ने मुझे प्रसन्न किया; तुम्हारे एकांतवास ने मुझे खिन्न किया; पर तुम्हारे ठंडे और कठोर स्वभाव ने मुझे मार ही डाला। आज तक तुमने अपना जीवन उदासीनता और एकांतवास में बुरी तरह काटा। प्रेम और जीवन के तत्त्व पर तुमने जरा भी विचार नहीं किया। उदासीनता और एकांतवास को तुमने इसलिए स्वीकार किया कि प्रेम से तुम पीड़ित आ गई थी; या जीवन से तुम निराश हो गई थी। घमंड में आकर तुमने एकांतवास पसंद किया। दुनिया की नाट्यशाला में होनेवाले हजारों तरह के प्रेम-पूर्ण अभिनयों से दूर भागकर यहां, इस पहाड़ की चोटी पर, सबसे अलग रहने के इरादे से, तुम आ बैठी। क्या तुम नहीं जानती कि पहाड़ों का प्रेम वृक्ष के मधुर फल चखने को नहीं मिलते? प्रेम में उष्णता है; तुममें शीतलता। प्रेम प्रवाही है-वह बहकर अपने पात्र तक पहुंचता है। तुम जड़ हो, हजार प्रयत्न करने पर भी तुम अपनी जगह नहीं छोड़ती। फिर, तुम्हीं कहो, इस दशा में, किस प्रकार तुम किसी की प्रेमपात्र हो सकती हो?
‘‘अगर तुम मेरी वधू होना चाहती हो, मेरे प्रेम की प्रियतम पात्र बनना चाहती हो; तो तुम भी मेरे समान हो जाओ। उस उष्णता प्राप्त करो; अपने कड़ेपन को छोड़ी; प्रवाही बन जाओ; इन सुनसान पहाड़ों से नीचे उतरकर बस्ती में चलो। यदि तुम मेरे सुख-दुःख में शामिल होने की इच्छा रखती हो तो जो काम मैं करता हूं वही तुम भी करना सीखो। मैं आकाश को प्रकाशित करता हूं; तुम पृथ्वी को अपने लावण्य से प्रकाशित करती हुईं उसमें नरमी पैदा करो। उसे सरसब्ज और उपजाऊ बनाओ। तुमने अपने पास जो अनमोल चीजें छिपा रखी हैं उनको, राह में, जो कोई तुम्हें मिले, उसे, परोपकार करने के इरादे से, देती जाओ। सांसारिक भार को उठा लो। उसके सुख-दुःख में और हानि-लाभ में शामिल हो जाओ। सबसे हेल-मेल रखो और अपने पवित्र आचरण से सबको पवित्र करो।’’
इस प्रकार सम्भाषण करके भुवन भास्कर ने कुमारी हिमांगिनी का चुंबन बड़े ही प्रेम से किया। उसके स्पर्श से हिमांगिनी को परमानंद हुआ और वह तत्काल अपने प्रेमी की आज्ञा पालन करने के लिए प्रस्तुत हो गई। वह वहां से कूद पड़ी और ऊंची-ऊची पहाड़ियों और घाटियों को पार करके पहाड़ के नीचे उतर आई। वहां से वह उछलती-कूदती आगे बढ़ी। उसने अपने दिल में ठान लिया कि जब तक मैं सागर सिंह के दर्शन न कर लूंगी तब तक मैं हरगिज बीच में कहीं न ठहरूंगी।
हिमांगिनी ने अपना प्रण पूरा कर दिखाया, इसलिए उस पर प्रसन्न होकर सायंकाल, सागर सिंह के यहां आकर भुवन भास्कर ने यथाविधि उसका पाणिग्रहण किया। तब से हिमांगिनी वहीं रहने लगी। हर रोज रात को, अपनी प्रेमी भुवन भास्कर से मिलकर परमानंद का अनुभव करने लगी।