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तीन देवता भाग 1

10 अगस्त 2022

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मेरा नाम वररुचि है। जो एक बार भी किसी अच्छे पंडित के पास बैठा होगा, वह मुझे भली-भांति जानता होगा कि मैं महापंडित हूं। मेरी पंडिताई का हाल ही से समझ लीजिए कि मैंने व्याकरण-

संबंधी एक बहुत बड़ा ग्रंथ बनाया है। यह सब इसलिए कहता हूं कि जिसमें तुमको मेरी बात पर विश्वास आवे। तुम कहीं यह न समझने लगो कि यह एक कहानी है। कहानी नहीं है। सच्ची घटना है। जो कुछ मैं आज तुमसे कहना चाहता हूं उससे मेरी

प्राणधिका पत्नी ही से संबंध है। इसलिए तुम्हीं कहो, कौन ऐसा मूर्ख होगा जो अपनी ही घरवाली के झूठे कलंक कहने बैठेगा? यह घटना यद्यपि हजारों वर्ष की पुरानी है, तथापि इसकी सत्यता में संशय नहीं। वह वृत्तांत उसी समय लिखा गया था। मैं उसे ही तुम्हारे मनोरंजन के लिए सुनाता हूं। अपनी ओर से मैं कुछ न कहूंगा। लो, सुनो।

लड़कपन में मैं अपने दो साथियों के साथ गुरुकुल में विद्या पढ़ता था। मेरे एक साथ का नाम विष्णु और दूसरे का इन्द्रदत्त था। मेरे गुरू विन्ध्याचल से थोड़ी दूर पर विन्ध्यनगर में रहते थे। उनका नाम विद्याविभूति था। हम तीनों बड़े परिश्रम से पढ़ते थे। जब मेरी अवस्था कोई आठ वर्ष की थी तभी मैं विद्या विभूतिजी के पास भेज दिया गया था। मेरे पिता का शरीरांत हुए, उस समय चार वर्ष हो चुके थे। घर पर केवल मेरी वृद्ध माता थीं। वे मुझे प्राणों से अधिक चाहती थीं। मेरी भी यही इच्छा रहती थी कि शीघ्र ही मैं पंडित हो जाऊं और किसी राजा के आश्रय में रहकर स्वयं सुखी होऊं और माता को भी सुखी करूं। मेरे गुरू मुझे बहुत चाहते थे। मैं भी उनकी हृदय से सेवा-शुश्रूषा करता था। उनकी कृपा से मैं शीघ्र ही सब शास्त्रों में पंडित हो गया। मुझे पूरा पंडित होने में 12 वर्ष लगे। अर्थात् जब मैं 20 वर्ष का हुआ तब मैंने विद्या की भी समाप्ति कर दी और उसके साथ ही अपने लड़कपन की भी समाप्ति। मैं युवा हुआ।

एक बार नगर में एक उत्सव हुआ। गुरू की आज्ञा से मैं भी उसे देखने गया। साथ में विष्णु और इन्द्रदत्त भी थे। वहां मैंने एक नवयौवना, दीर्घ-लोचना, शशांक-वंदना और गजेन्द्र-गमना कामिनी देखी। मैंने इन्द्रदत्त से पूछा, ‘‘यह कौन है?’’ उससे कहा, ‘‘विश्वकोश नामक ब्राह्यण की यह कन्या है। इसका नाम उपकोशा है।’’ उपकोशा को देखकर मैं प्रेम-परवश हो गया। मेरा मन मेरे हाथ से जाता रहा। चाह-भरी दृष्टि से मुझे अपनी ओर देखते देख उपकोशा ने अपनी सखी से कुछ पूछा। कुछ क्या, मेरा ही हाल पूछा। सखी ने उसके कान में कुछ कहा और कहकर मेरी ओर धीरे-से उंगली उठाकर वह मुसकुराई। मेरा परिचय पाकर उपकोशा ने भी प्रेम-भरी दृष्टि से मेरी ओर एक बार देखा। देखकर वह वहां से चल दी। मैं भी किसी प्रकार घर लौटा आया। कंदुक के समान सुंदर स्तनोंवाली, केहरि के समान क्षीण कटिवाली, लक्ष्मी के समान सुंदरी उस मनमोहनी के बिंबाधरों में वर्तमान सुधा-सलिल की प्यास से व्याकुल होने के कारण रात को मुझे नींद नहीं आई। बड़ी कठिनता से पिछली रात जरा आंख बंद हुई तो मैं क्या देखता हूं कि सफेद साड़ी पहने हुए एक दिव्य स्त्री मेरे सामने खड़ी है। उसने मुझसे कहा, ‘‘पुत्र! उपकोशा तेरी पूर्वजन्म की अर्धांगिनी है। मैं तेरे मुख में वास करनेवाली सरस्वती हूं। तू चिंता मत कर। तेरी व्याकुलता मुझसे नहीं देखी गई। इसीलिए मैं तुझे धैर्य देने के लिए प्रकट हुई हूं। तेरे रूप और तेरे गुणों पर मोहित होकर उपकोशा तुझे ही अपना पति करना चाहती है। शीघ्र ही तेरी इच्छा पूरी होगी।’’ इतना कहकर भगवती सरस्वती अंतर्धान हो गई।

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हिन्दी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है। वह समय हिन्दी के कलात्मक विकास का नहीं, हिन्दी के अभावों की पूर्ति का था। इन्होंने ज्ञान के विविध क्षेत्रों- इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, पुरातत्त्व, चिकित्सा, राजनीति, जीवनी आदि से सामग्री लेकर हिन्दी के अभावों की पूर्ति की। हिन्दी गद्य को माँजने-सँवारने और परिष्कृत करने में यह आजीवन संलग्न रहे।यहाँ तक की इन्होंने अपना भी परिष्कार किया। हिन्दी गद्य और पद्य की भाषा एक करने के लिए (खड़ीबोली के प्रचार-प्रसार के लिए) प्रबल आन्दोलन किया। हिन्दी गद्य की अनेक विधाओं को समुन्नत किया।
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तीन देवता भाग 1

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भाग 2

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प्रातःकाल मुझसे नहीं रहा गया। उस चकोर-नयनी को देखने की मुझे छटपटी पड़ी। मैं उसके घर की ओर चला। यहां पहुंचकर उसके पिता की फूल-वाटिका में इधर-उधर मैं घूमने लगा कि कहीं उसके दर्शन हो जाएं। मेरा मनोरथ सफल

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भाग 3

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कुछ दिन में मेरी माता इस संसार से चल बसीं। इसका पहले मुझे बहुत शोक हुआ। परंतु धीरे-धीरे वह कम हो गया और उपकोशा के साथ मैं आनंद से वहीं विन्ध्यनगर में रहने लगा। इस बीच में मेरे गुरू विद्याविभूति के अने

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भाग 4

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इस प्रकार मंत्री महाशय से छुट्टी पाकर ज्यों ही उपकोशा थोड़ी दूर आगे गई त्यों ही उसे मार्ग में पुरोहित देवता मिले। उन्होंने भी उसे रोका और अपना अनुराग प्रकट किया। उन्हें भी उपकोशा ने प्रेम-भरी बातों से

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भाग 5

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इसी बीच सुवर्णगुप्त ने कृपा की। सखियों ने कहा, ‘‘सुवर्णगुप्त वररुचि की धरोहर देने आया है। वह कहीं आपको देख न ले। इसलिए आप झटपट छिप जाइए।’’ अतएव न्यायाधीश जी ने भी उसी संदूक में रक्षा पाई। उसमें अब तीन

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भाग 6

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‘‘हे देवता! इस धूर्त ने मेरे स्वामी का धन लौटाने का वादा तुम्हारे सामने किया है। तुमको यह बात स्मरण होगी। अतः उसे तुम सत्य-सत्य राजा के सामने कहो। यदि न कहोगे तो मैं या तो इसी सभा में तुम्हें खोल दूंग

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महारानी चन्द्रिका और भारतवर्ष का तारा

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एक बार, सायंकाल, रानी चन्द्रिका अपनी सभा में अपने रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान थीं। उनके सारे सभासद और अधिकारी अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए सभामंडप की शोभा बढ़ा रहे थे। सभासदों के चारों ओर अनंत तारागण अ

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राजकुमारी हिमांगिनी भाग 1

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पर्वत के सबसे ऊंचे शिखर पर राजकुमारी हिमांगिनी ने अपना घर बनाया। संसार के साधारण जीवों के पास रहना, या उनके साथ हंसना-खेलना उसे जरा भी पसंद न आया। ‘‘सुंदरता और गोरेपन में मैं अपना सानी नहीं रखती; फिर

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यथासमय वसंत ऋतु आई। बादल जहां के तहां उड़ गए। आसपास साफ हो गया। इतने में अनायास एक बड़ा ही सुरूपवान् और गौरवर्ण युवा पहाड़ की चोटी पर दिखाई दिया। अहा, उसकी मुसकान जादू से भरी हुई थी। उसे देखते हिमांगिनी

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यह सुनकर भुवन भास्कर ने शिष्टता और प्रेमपूर्ण कोमल वचनों से इस प्रकार उत्तर दिया- ‘‘स्वच्छ, निष्कलंक और सुंदर कुमारिके। तुम्हारी कांति, तुम्हारे रूप-रंग और तुम्हारे टटकेपन ने मुझे प्रसन्न किया; तुम्ह

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