मेरा नाम वररुचि है। जो एक बार भी किसी अच्छे पंडित के पास बैठा होगा, वह मुझे भली-भांति जानता होगा कि मैं महापंडित हूं। मेरी पंडिताई का हाल ही से समझ लीजिए कि मैंने व्याकरण-
संबंधी एक बहुत बड़ा ग्रंथ बनाया है। यह सब इसलिए कहता हूं कि जिसमें तुमको मेरी बात पर विश्वास आवे। तुम कहीं यह न समझने लगो कि यह एक कहानी है। कहानी नहीं है। सच्ची घटना है। जो कुछ मैं आज तुमसे कहना चाहता हूं उससे मेरी
प्राणधिका पत्नी ही से संबंध है। इसलिए तुम्हीं कहो, कौन ऐसा मूर्ख होगा जो अपनी ही घरवाली के झूठे कलंक कहने बैठेगा? यह घटना यद्यपि हजारों वर्ष की पुरानी है, तथापि इसकी सत्यता में संशय नहीं। वह वृत्तांत उसी समय लिखा गया था। मैं उसे ही तुम्हारे मनोरंजन के लिए सुनाता हूं। अपनी ओर से मैं कुछ न कहूंगा। लो, सुनो।
लड़कपन में मैं अपने दो साथियों के साथ गुरुकुल में विद्या पढ़ता था। मेरे एक साथ का नाम विष्णु और दूसरे का इन्द्रदत्त था। मेरे गुरू विन्ध्याचल से थोड़ी दूर पर विन्ध्यनगर में रहते थे। उनका नाम विद्याविभूति था। हम तीनों बड़े परिश्रम से पढ़ते थे। जब मेरी अवस्था कोई आठ वर्ष की थी तभी मैं विद्या विभूतिजी के पास भेज दिया गया था। मेरे पिता का शरीरांत हुए, उस समय चार वर्ष हो चुके थे। घर पर केवल मेरी वृद्ध माता थीं। वे मुझे प्राणों से अधिक चाहती थीं। मेरी भी यही इच्छा रहती थी कि शीघ्र ही मैं पंडित हो जाऊं और किसी राजा के आश्रय में रहकर स्वयं सुखी होऊं और माता को भी सुखी करूं। मेरे गुरू मुझे बहुत चाहते थे। मैं भी उनकी हृदय से सेवा-शुश्रूषा करता था। उनकी कृपा से मैं शीघ्र ही सब शास्त्रों में पंडित हो गया। मुझे पूरा पंडित होने में 12 वर्ष लगे। अर्थात् जब मैं 20 वर्ष का हुआ तब मैंने विद्या की भी समाप्ति कर दी और उसके साथ ही अपने लड़कपन की भी समाप्ति। मैं युवा हुआ।
एक बार नगर में एक उत्सव हुआ। गुरू की आज्ञा से मैं भी उसे देखने गया। साथ में विष्णु और इन्द्रदत्त भी थे। वहां मैंने एक नवयौवना, दीर्घ-लोचना, शशांक-वंदना और गजेन्द्र-गमना कामिनी देखी। मैंने इन्द्रदत्त से पूछा, ‘‘यह कौन है?’’ उससे कहा, ‘‘विश्वकोश नामक ब्राह्यण की यह कन्या है। इसका नाम उपकोशा है।’’ उपकोशा को देखकर मैं प्रेम-परवश हो गया। मेरा मन मेरे हाथ से जाता रहा। चाह-भरी दृष्टि से मुझे अपनी ओर देखते देख उपकोशा ने अपनी सखी से कुछ पूछा। कुछ क्या, मेरा ही हाल पूछा। सखी ने उसके कान में कुछ कहा और कहकर मेरी ओर धीरे-से उंगली उठाकर वह मुसकुराई। मेरा परिचय पाकर उपकोशा ने भी प्रेम-भरी दृष्टि से मेरी ओर एक बार देखा। देखकर वह वहां से चल दी। मैं भी किसी प्रकार घर लौटा आया। कंदुक के समान सुंदर स्तनोंवाली, केहरि के समान क्षीण कटिवाली, लक्ष्मी के समान सुंदरी उस मनमोहनी के बिंबाधरों में वर्तमान सुधा-सलिल की प्यास से व्याकुल होने के कारण रात को मुझे नींद नहीं आई। बड़ी कठिनता से पिछली रात जरा आंख बंद हुई तो मैं क्या देखता हूं कि सफेद साड़ी पहने हुए एक दिव्य स्त्री मेरे सामने खड़ी है। उसने मुझसे कहा, ‘‘पुत्र! उपकोशा तेरी पूर्वजन्म की अर्धांगिनी है। मैं तेरे मुख में वास करनेवाली सरस्वती हूं। तू चिंता मत कर। तेरी व्याकुलता मुझसे नहीं देखी गई। इसीलिए मैं तुझे धैर्य देने के लिए प्रकट हुई हूं। तेरे रूप और तेरे गुणों पर मोहित होकर उपकोशा तुझे ही अपना पति करना चाहती है। शीघ्र ही तेरी इच्छा पूरी होगी।’’ इतना कहकर भगवती सरस्वती अंतर्धान हो गई।