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राजकुमारी हिमांगिनी भाग 1

10 अगस्त 2022

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पर्वत के सबसे ऊंचे शिखर पर राजकुमारी हिमांगिनी ने अपना घर बनाया। संसार के साधारण जीवों के पास रहना, या उनके साथ हंसना-खेलना उसे जरा भी पसंद न आया।

‘‘सुंदरता और गोरेपन में मैं अपना सानी नहीं रखती; फिर में राजकुमारिका हूं। तब भला क्यों मैं मामूली लोगों के पास बैठना पसंद करूं? संसारी जीवों की संगति मुझे जरूर अपवित्र कर डालेगी।’’ इस तरह अपने मन में सोच-विचारकर वह पहाड़ों की तरफ चली। वहां सबसे ऊंचे पहाड़ की चोटी पर वह जा बैठी। वहां रहते उसे कई युग बीत गए। अपनी चमक-दमक और रूप-रंग के गर्व से फूली नहीं समाई।

चिरकाल तक वह वहीं सर्वांग शीतल अवयवों और सुंदरता के मद से मतवाली रही।उसका समय का रूप सफेद कमल के समान सुंदर वस्त्र धारण किए हुए नई वधू के रूप को भी मात करता था। पर वहां एकांत में अकेली रहते-रहते वह ऊब उठी। धीरे-धीरे उसे दूसरे की संगति की चाहत हुई। कुछ दिनों में, क्रम-क्रम से, उसकी उत्सुकता बढ़ गई। उसने विवाह करना चाहा। पर उसके पाणिग्रहण का सौभाग्य प्राप्त हो किसे? उसे खुद ही न मालूम था कि कौन ऐसा भाग्यवान् युवक है जिसे उसका यौवन-रत्न प्राप्त हो सकेगा। मारूत महाराज, पवन देव, झकोर सिंह इत्यादि राजों और राजकुमारों ने उसके साथ अनेक प्रेमलाप किए; हर प्रयत्न से उसका चित्त अपनी ओर आकर्षित करना चाहा, पर सब व्यर्थ हुआ। उनमें से एक को उसने पसंद न किया। उसकी समझ में उन सबका प्रेम दो ही चार दिनों का था। ऐसे कच्चे प्रेमियों को कौन कुमारिका अपना सर्वस्व दे डालने का साहस करेगी?

जलदेन्द्र बहादुर सिंह तक हिमांगिनी के प्रेम के भिखारी हुए। उन्होंने उसके पास कई दूतियां भी भेजीं। उन्होंने उसकी विरह-कथा की कहानियां, खूब नमक-मिर्च लगाकर, कही। वे अपने साथ पहनने-ओढ़ने की कुछ चीजें भी उपहार के तौर पर लाईं। उनको हिमांगिनी अब तक धारण किए हुए हैं। पर जलदेन्द्र भी उसे पसंद न आए। पुरुषत्व के गुणों की उनमें जरा कमी नजर आई। पुरुष वह है जिसमें शक्ति भी हो, कठोरता भी हो, धैर्य भी हो और समय पर दुःख, क्लेश या दूसरों की दो-चार बातें सहने का भी सामर्थ्य हो। इन सब गुणों के न होने से हिमांगिनी ने उसकी भी प्रार्थना स्वीकार न की। क्या करे? बेचारी चुपचाप अपने घर बैठी रही। उसका भव्य वेश, उसका रूप-लावण्य और उसका गर्वव्यंजक चेहरा देखने लायक था। पर यौवन की ऊष्मा उसमें न थी; उसका बदन ठंडी बर्फ के समान ठंडा था। इसी से उसे देखकर तबीयत खुश नहीं होती थी; जान पड़ता था कि उसका शरीर निर्जीव है।

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हिन्दी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है। वह समय हिन्दी के कलात्मक विकास का नहीं, हिन्दी के अभावों की पूर्ति का था। इन्होंने ज्ञान के विविध क्षेत्रों- इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, पुरातत्त्व, चिकित्सा, राजनीति, जीवनी आदि से सामग्री लेकर हिन्दी के अभावों की पूर्ति की। हिन्दी गद्य को माँजने-सँवारने और परिष्कृत करने में यह आजीवन संलग्न रहे।यहाँ तक की इन्होंने अपना भी परिष्कार किया। हिन्दी गद्य और पद्य की भाषा एक करने के लिए (खड़ीबोली के प्रचार-प्रसार के लिए) प्रबल आन्दोलन किया। हिन्दी गद्य की अनेक विधाओं को समुन्नत किया।
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यह सुनकर भुवन भास्कर ने शिष्टता और प्रेमपूर्ण कोमल वचनों से इस प्रकार उत्तर दिया- ‘‘स्वच्छ, निष्कलंक और सुंदर कुमारिके। तुम्हारी कांति, तुम्हारे रूप-रंग और तुम्हारे टटकेपन ने मुझे प्रसन्न किया; तुम्ह

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