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बंगाली राजनीतिक हिंसा

12 जुलाई 2023

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पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव से पहले फिर हिंसा की खबरें आने लगी हैं. चुनाव में अभी करीब 25 दिन बाकी हैं. नामाकंन प्रकिया शुरू होते ही हिंसा होने लगी. पूर्वी मेदिनीपुर, आसनसोल समेत कई जगहों पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर हमले हुए. मौत भी हुई. हालत ये हो गई है कि चुनाव आयोग ने सभी नामांकन केंद्रों के एक किलोमीटर के दायरे में धारा-144 लगाने का फैसला किया है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) को चिट्ठी लिखनी पड़ी है कि राज्य सरकार हिंसा रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए. राज्य में पंचायत चुनाव के लिए 8 जुलाई को वोटिंग होगी. 11 जुलाई को नतीजे आएंगे.  चुनाव के समय हिंसा दूसरे राज्यों में भी होती है, लेकिन अनिवार्य रूप से नहीं. लेकिन पश्चिम बंगाल अलग है. पंचायत चुनाव हो या विधानसभा से लेकर लोकसभा, सूबे में चुनाव के आसपास हिंसा की घटनाएं खूब होती हैं. जैसे ये चुनावी प्रक्रिया का कोई जरूरी हिस्सा हो. पिछले कुछ चुनावों में भी वोटिंग से पहले और नतीजों के बाद खून-खराबे के साथ-साथ रेप तक की घटनाएं सामने आ चुकी हैं.  लोकतंत्र के 'गन-तंत्र' में बदलने का एक बड़ा उदाहरण 2018 का पंचायत चुनाव है. बमबारी, बूथ कैप्चरिंग, गोलीबारी, सब हुई. यहां तक कि पत्रकारों पर हमले किए गए. ऐन चुनाव वाले दिन 13 लोगों की मौत हुई थी. पूरे चुनाव के दौरान कम से कम 20 लोगों ने जान गंवाई थी. चुनाव में ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी 34 परसेंट सीटों पर निर्विरोध जीत गई थी. लेकिन राज्य में बैलेट और बुलेट का इतिहास काफी पुराना और डरावना है. चाहे वो कांग्रेस का समय हो या फिर 34 साल चला वाम शासन. हिंसा कभी नहीं रुकी।
            हिंसा का इतिहास
बंगाल के किसी भी राजनीतिक एक्सपर्ट से जब आप बात करेंगे तो वो एक लाइन जरूर बताएंगे. यही कि बंगाल में राजनीतिक हिंसा यहां के इतिहास और संस्कृति का हिस्सा रहा है. ये वही बंगाल है जिसे शाहजहां के बेटे और 17वीं शताब्दी में बंगाल के गवर्नर रहे मिर्जा शाह शुजा ने 'शांतिप्रिय' बताया था. शांतिप्रिय बताने के एक सदी के भीतर 1770 में बंगाल में अकाल पड़ा, मौतें हुईं और खूब हिंसा भी हुई. एक सदी बाद 1870 और 1880 के बीच कुछ ऐसा ही हुआ- अकाल, मौतें और हिंसा. बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने भी अपने उपन्यास आनंदमठ में इसका जिक्र किया कि किस तरह अकाल के कारण बंगाल में हिंसा भड़की.आजादी से पहले भी 1943 में ऐसा ही हुआ. अकाल में लाखों लोगों की मौत हुई. फिर तीन साल बाद 1946 में भीषण दंगे हुए. मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग को लेकर 'डायरेक्ट एक्शन' का आह्वान किया था. कलकत्ता की सड़कों पर हजारों लोग मारे गए. आज भी लोग इसे किताबों में 'द ग्रेट कैलकटा किलिंग' के नाम से पढ़ते हैं. बंगाल के वरिष्ठ पत्रकार जयंता घोषाल बताते हैं कि आजादी की लड़ाई के दौरान भी हार्ड लाइन लेने वाले कई नेता बंगाल से निकले थे. घोषाल के मुताबिक, आजादी के बाद कम्युनिस्टों ने 'सर्वहारा क्रांति' करने की कोशिश की. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) संसदीय लोकतंत्र का विरोध कर रही थी. पार्टी का मत था कि भारत में भी रूस और चीन की तरह हथियारबंद संघर्ष हो और ‘सर्वहारा की सत्ता’ स्थापित हो. सीपीआई पर बैन लगा दिया गया. हालांकि कुछ ही समय बाद पार्टी इस लाइन से अलग हुई. मेनस्ट्रीम राजनीति में आई.मैंने देखा कि लालू आलम और उसके चार-पांच साथी मेरी तरफ बढ़ रहे हैं. उन्होंने हाथ में लोहे की रॉड और पिस्तौलें थामी हुई हैं. मुझे पता था कि यही होने वाला है. मैं शांति से उनके मुझ तक पहुंचने का इंतजार करने लगी. लालू आलम ने आते ही मेरे सिर पर लोहे की रॉड से वार किया. मैं खून से भीग गई."
ममता कई दिनों तक अस्पताल में भर्ती रही थीं. कई साल बाद, 2011 में लालू आलम ने ममता बनर्जी से माफी मांगी. उसने कहा था कि सीपीएम ने जबरदस्ती उससे हमला करवाया था. 2019 में उसे इस केस से बरी भी कर दिया गया  । साल 1951 में सीपीआई ने अपना 'स्टेटमेंट ऑफ पॉलिसी' जारी किया. इसमें पार्टी ने कहा कि हिंसा, साम्यवाद का कोई मूलतत्व नहीं है. पार्टी का कहना था कि एक प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग है, जो आम लोगों के खिलाफ बल और हिंसा का सहारा लेता है. पार्टी हिंसा को रणनीति का हिस्सा बनाकर नहीं चलती है, लेकिन जब लोगों के पास कोई विकल्प नहीं बचता, तो पार्टी इससे इनकार नहीं करती. ये भी कहा कि लोगों की हितों की रक्षा के लिए चुनाव में हिस्सा लेना जरूरी है.पश्चिम बंगाल के पूर्व IPS अधिकारी नजरूल इस्लाम के मुताबिक, शांति से चुनाव के लिए जरूरी है कि पर्याप्त संख्या में पुलिस बल तैनात हों. सत्ताधारी पार्टी यही नहीं चाहती है. पहले की पार्टियां भी यही करती थीं. जरूरी है कि लॉ एंड ऑर्डर को मजबूत किया जाए. जितनी कम पुलिस फोर्स होगी, ममता बनर्जी की पार्टी को उतना फायदा होगा.

बहरहाल, कलकत्ता हाई कोर्ट ने पंचायत चुनाव के लिए केंद्रीय बलों को तैनात करने का आदेश दे दिया है. राज्य चुनाव आयोग ने जिन सात जिलों को संवेदनशील बताया था, वहां सेंट्रल फोर्सेस की तैनाती होंगी. क्या ये हिंसा को रोक पाएंगी? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है.
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बंगाली राजनीतिक हिंसा
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आज राजनीतिक हिंसा देश में अब एक मान सम्मान बन गया है और हम सभी अपने संविधान और क़ानून व्यवस्था सब पदगरिमा में भूल कर र केवल राजनीतिक दलों में पद और पार्टी के वर्चस्व की हिंसा शुरू हो जाती हैं।अगर ख़्याल देश और जनता के लिए हित हो तब हिंसा न हो आओ पढ़े

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