shabd-logo

चतुर्थ एवं पंचम सर्ग

10 जून 2022

19 बार देखा गया 19

पांच गांव का सन्धिपत्र

कौरव दल में विफल हुआ l

युद्ध विकल्प ही शेष रहे

पांडव दल में सफल हुआ ll 112 ll

युद्ध भूमि में अर्जुन का रथ

वासुदेव जब ले आए l

संबंधों के उस मोह जाल से

आँखों में जल भर लाए ll 113 ll

ये तो मेरे सब अपने हैं

क्या इनसे युद्ध करूँगा मैं l

जिनकी ऊँगली पकड़ चला

इनके प्राण हरूंगा मैं ! ll 114 ll

इतना कहकर अर्जुन ने तब

गाण्डीव गिराया हाथों से l

निश्चेष्ट पड़े थे अंग सभी

ये शब्द हीन इन बातों से ll 115 ll

हे पार्थ ! यही संबंधी थे

निष्ठुर थे बैठे सभा बीच l

दुःशासन निर्मम हाथों से

थका नहीं था चीर खींच ll 116 ll

क्षत्रिय का जो कर्म लिखा

निर्वाह तुझे करना होगा l

धर्म युद्ध के लिए आज

इन प्राणों को हरना होगा ll 117 ll

यह मृत्यु लोक है पार्थ सुनो

यह अटल सत्य कहलाता है l

भ्रम जाल बना है यह जीवन

सब काल गाल में जाता है ll 118 ll

यह तन तो नाशवान ही है

जो प्राण वायु से चलता है l

वस्त्रों के जैसा तुच्छ मूल्य

हर प्राणी जिसे बदलता है ll 119 ll

आत्म शक्ति न शोषित हो

अग्नि शक्ति न जला सके l

यह तो मेरी ही अमर ज्योति

ब्रम्हांड शक्ति न गला सके ll 120 ll

सब कुछ तो नाशवान ही है

सब पहले से ही मरे हुए l

तू जिनको मारेगा रण में

वे मृत अप्राण से भरे हुए ll 121 ll

अन्याय, पाप और निर्ममता

ये सब इनकी दुर्गुणता है l

इसीलिए ये मरे हुए

प्राण हीन तन जड़ता है ll 122 ll

मन में इतने हैं भाव मलिन

यत्न नहीं जो शुद्ध करें l

इनके बांहों में शक्ति नहीं

जो तेरे सम्मुख युद्ध करें ll 123 ll

पर भीष्म द्रोण पर कैसे मैं

अपना गाण्डीव चलाऊंगा l

एक गुरु हैं और पितामह

क्या इन पर शस्त्र गिराऊंगा ll 124 ll

कृष्ण समझते थे सब कुछ

मोह जाल में पार्थ फंसे l

किन्तु तनिक मुस्कान खिली

अंग-अंग सत्यार्थ कसे ll 125 ll

वह महाकाय हर ओर दिखे

अर्जुन के सम्मुख खड़ा हुआ l

पार्थ चकित आश्चर्य चकित

रहस्य भाव था जड़ा हुआ ll 126 ll

पर्वत स्वरूप था महाकाय

अंग सभी विकराल बने l

जीवन में मृत्यु समाहित थी

जैसे लगता था काल बने ll 127 ll

एक एक अणु तिरते थे

परमाणु विखंडित सृष्टि करें l

सृष्टि संतुलित होती थी

काल लोथ की वृष्टि करें ll 128 ll

जगत पिता का वह स्वरूप

अर्जुन के आँखों में छाया l

धर्म कर्म सत्कर्मों से

बुद्धि ज्ञान मन में आया ll 129 ll

कुछ दूर खड़े थे वासुदेव

होंठों पर थी मधुर हंसी l

पार्थ इसे न समझ सके

जैसे जालों में मीन फंसी ll 130 ll

उस महारुप के पीछे ही

थे वासुदेव ही खड़े हुए l

अर्जुन ने देखा जब उनको

चरणों में उनके पड़े हुए ll 131 ll

ज्ञानोदय की आभा में

पौरुषेय विकराल हुआ l

उत्साह भाव में तत्क्षण ही

गाण्डीव वाण त्रिकाल हुआ ll 132 ll

महायुद्ध की रणभेरी

वीरों का विस्तार हुआ l

बरछे, भाले औ' धनुष वाण

तलवारों से प्रतिकार हुआ ll 133 ll

संबंध मिटे संबंधों के

धर्म युद्ध का स्वर गूँजा  l

प्रत्येक दिवस नर कटते थे

वीभत्स भयंकर डर गूँजा ll 134 ll


पांडव अति बलशाली थे 

युद्ध विकट भी करते थे l

यदि पार्थ कृष्ण न हों रण में 

तो युद्ध भाव से डरते थे ll 135 ll


कुछ यही अवस्था आ पहुंची 

गुरु द्रोण ने व्यूह रचा l

अर्जुन लड़ते थे दूर कहीं 

पांडव में था कुछ नहीं बचा ll 136 ll


दुर्योधन तो अति गदगद था 

पांडव तो जीत न पाएंगे l

युद्ध भूमि तो मेरी है और 

विजय सुफल हो जाएंगे ll 137 ll


चिंता में बैठे थे पांडव 

संचालन कौन करे रण का l

यह चक्रव्यूह कैसे टूटे? 

अर्जुन था पालक इस प्रण का ll 138 ll


तभी उधर आवेशित हो 

अभिमन्यु कर में बाण लिए l

गरज-गरज कर वह बोला 

चिंता है क्यों निरुपाय किए ll 139 ll


जब मैं था माँ के उदर बीच 

पितृ श्री ने कथा कही l

चक्रव्यूह की रचना भी 

सुन ली थी मैंने तभी सही ll 140 ll


किन्तु प्रसंग जब आ पहुंचा 

अंतिम द्वार टूटने का l

माँ को निद्रा ने आ घेरा 

दुःख तो है डोर छूटने का ll 141 ll


प्राण रहेंगे जब तक तन में 

युद्ध करूँ मैं काल बनूँ l

अपने बाणों की वर्षा से 

कौरव दल का जंजाल बनूँ ll 142 ll


लेकर हाथों में गदा भीम 

बोले शपथ मैं लेता हूँ l

अंतिम द्वार तोड़कर ही 

प्रण करूँ बनूँ प्रणेता हूँ ll 143 ll


सब कुछ उचित लग रहा था 

सब ओजस्वी से लगते थे l

युधिष्ठिर फिर भी चिंतित थे 

अर्जुन यदि युद्ध न लड़ते थे ll 144 ll


अभ्यास कुशलता सभी उचित 

ज्ञानी होना भी उत्तम है l

कुटिल चाल की कूटनीति भी 

जीवन में सर्वोत्तम है ll 145 ll


किन्तु अभी छोटा बालक 

बचपन की अल्हड़ता है l

वैरी कितना कुटिल दुष्ट 

जो इसमें नहीं सुघड़ता है ll 146 ll 


अल्प आयु का महारथी 

चक्रव्यूह में झूल गया l

दुष्ट जनों की छाया में 

उस माया को वह भूल गया ll 147 ll 


पूरी शक्ति लगा दी उसने 

वीर पुरुष आतंकित थे l

युद्ध हाथ से निकल जाए

इसीलिए सब चिंतित थे ll 148 ll


दुर्योधन था गरज रहा 

नियम सभी त्यागो वीरों l

कुटिल चाल से युद्ध करो 

वार करो जागो वीरों ll 149 ll


तब सबने मिलकर वार किया 

पँख टूट कर अलग हुआ l

लहूलुहान हो गया कांत 

धरती से जैसे विलग हुआ ll 150 ll


अर्जुन की अनुपस्थिति में 

वीर बांकुरा रथी कटा l

जिसके पौरुष से कुरुक्षेत्र 

लोथों से जैसे लोथ पटा ll 151 ll


तीखे बाणों से बिन्धा हुआ 

अगनित घावों पर जमा रक्त l

उसके सम्मुख था रक्त वर्ण 

जिसके सम्मुख था कभी व्यक्त ll 152 ll


गिर पड़ी उठी तत्काल नहीं 

अस्त-व्यस्त परिधान बने l

सिक्त अधर के अमिय पान 

सूखे पत्तों के प्राण बने ll 153 ll


नयनों के सम्मुख यह क्या? 

जो पड़ा हुआ कृशकाय कांत l

यह कटा लोथ था कहाँ कटा? 

किसके वाणों से हुआ शांत ll 154 ll


स्मरण नहीं क्या प्रिये सखी 

वह जीवन कितना कोमल था l

यह वही वाण तो है लाया 

जो मेरे सम्मुख श्यामल था ll 155 ll


स्मरण अचानक हो आया 

कोमलता में वह अल्हड़ थी l

बिन्धा हुआ रक्ताभ प्राण 

ऐसे था आया तत्क्षण ही ll 156 ll


उसके पँखों में लगा रक्त 

कुछ ऐसे ही तो रक्तिम था l

किसके बंधन से मुक्त सजल 

क्यों मेरे कारण अंतिम था ll 157 ll


कोमल थे उसके प्राण किन्तु 

ये मेरे प्राणनाथ तो थे l

वह पक्षी कैसा निष्ठुर था 

के गया उन्हें, प्यारे जो थे ll 158 ll


कितनी दोषी थी उस दिन 

जो त्याग उसे मैं आई थी l

वही कदाचित निष्ठुरता 

उस निष्ठुर पर भी छाई थी ll 159 ll


अल्हड़ता कितनी मादक है 

जो अंधकार में जीती है l

मूर्ख विकलता में अपने 

रक्त घड़ों को पीती है ll 160 ll 


कल्पित यौवन जितना मादक 

उतना ही विष से भरा हुआ l

अपनी चंचलता में वह

अनभिज्ञ भाग्य से डरा हुआ ll 161 ll


दुखी व्यक्ति का दुःख केवल 

अपने को मात्र सताता है l

अन्य कोई उस रोदन में 

मादकता ही दिखलाता है ll 162 ll


विपदा की कैसी आन घड़ी 

नयनों में नीर रुदन करते l

चैतन्य अवस्था के श्रम कण 

मुख धोते नहीं विकल रहते ll 163 ll


मथ फेन उठाता है कोई 

नदियाँ सागर में मिलती हैं l

लहरों से लहरें टकराती 

फिर उनसे और निकलती हैं ll 164 ll


अश्रु दुखी मन व्याकुल है 

हाथों के तोते उड़ते हैं l

रोते-रोते वे व्यग्र रहे 

मानो अपनों से जुड़ते हैं ll 165 ll


नीरव थी मन की चंचलता 

विश्वास किसी पर रहा नहीं l

इस उजियारे से जीवन में 

अब तक तो कुछ भी सहा नहीं ll 166 ll


आसव थे मन के विकल हुए 

चिंतित मन में करुणा ही है l

निकट मृत्यु के पार इधर 

कुछ और नहीं मरना ही है ll 167 ll


नियति पृष्ठ पर लिखे हुए हैं 

दुःखद व्यथा के शब्द खिन्न l

कुछ जीवन के प्रथम भाग में 

कुछ जीवन के इति में भिन्न ll 168 ll


तेरा यह कैसा भाग्य सखी 

जीवन में तेरा प्रेम कहाँ l

जिसके गौरव का गान करे 

छोड़ तुझे वह चला वहाँ ll 169 ll


सुख तो जीवन का अंगमात्र 

जो पहले ही दिन ही रूठ चला l

आँसू का सूखा करुणालय 

नयनों के मेरे निकट जला ll 170 ll


अविराम प्रकम्पन स्वतः मंद 

अगनित तरुओं पर क्रन्दन है l

आँसू से सिंचित कूल स्यन्द 

टप-टप कर उनका बंदन है ll 171 ll


टूटे विराग के पलकों पर 

वे थिरते नहीं विकल कम्पित l

बह चले नीर परिधानों पर 

जैसे बादल से जल कम्पित ll 172 ll


क्या कहूँ मुझे कुछ पता नहीं 

इस संसृति का व्यापार कहाँ l

तुमसे तो प्रतिभा फूटी है 

मेरी पृथ्वी का सार कहाँ ll 173 ll


हाहाकार उठा मन में 

नयनों में बहते नीर चले l

जो सींच रहा है अंदर ही 

कुछ ठोस गहनतम रक्त पले ll 174 ll


व्यथा ह्रदय पर क्यों भारी? 

है मेरे सम्मुख भव्य नहीं l

स्वयं कोई मिट जाए यदि 

होता क्या कोई दिव्य नहीं ll 175 ll


अति शीघ्र मोह कैसे मिटता 

क्षणिक रहे या दीर्घ रहे l

प्रेम युक्त जीवन दुःख में 

अश्रु जलों को तुरत सहे ll 176 ll


करुणा से करुणा मिलती है 

करुणा ही करुणा को लाती l

करुणा से करुणा विस्तृत है 

इस करुणा से मैं रो पाती ll 177 ll


वह असहनीय व्यथा मिलकर 

नव रचना में खिल जाती है l

मेरे आँगन में बरबस ही 

वह महाशक्ति मिल जाती है ll 178 ll


अभी शेष है युद्ध विकट 

निर्णय भी अंतिम मिलना है l

उस निर्दय अन्यायी को 

इस महा अग्नि में जलना है ll 179 ll


नव किरणोदय का तेज पुंज 

आशा है मेरे जीवन की 

कुछ आशंका रह जाती है 

इस महायुद्ध के कटु मन की ll 180 ll


पर सत्ता का पक्ष बने 

चाहे कितना कंटकधारी l

धर्म पक्ष में विजय लिखी 

निश्चय प्रतिपल संशय भारी ll 181 ll


मेरे मानव के रक्त बिंदु 

प्रतिकार मुक्त अब जीवन से l

निज संसार रचूंगी मैं 

अपने इस कोमल सेवन से ll 182 ll


पुरा संस्कृति का वाहक 

कल्याणमस्तु आराध्य बने l

जो सबसे अधिक तपस्वी हो 

वही हमारा साध्य बने ll 183 ll


रचना ही करनी है मुझको 

नव रचना ही कुलपालक हो l

कुछ शेष नहीं बच पायेगा

यह संरचना संचालक हो ll 184 ll 




✍️स्वरचित 

अजय श्रीवास्तव 'विकल' 

आदरणीय मेरे पाठक बन्धुओ, मेरा यह प्रयास कैसा रहा  कृपया इसको पढ़ें और बतायें कि मेरी खोज सार्थक रही?  

धन्यवाद l 


4
रचनाएँ
उत्तरा : एक खंडकाव्य l
0.0
उत्तरा : एक खंडकाव्य उत्तरा विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत का एक उपेक्षित स्त्री पात्र है l इस खंडकाव्य में उसके जीवन चरित्र के संबंध में कुछ उपेक्षित तत्वों को उकेरा गया है l उत्तरा महापराक्रमी अर्जुन की शिष्या के रूप में प्रस्तुत की गई l किन्तु महाभारत के युद्ध में पांडवो की विजय में उसका कितना योगदान था यह कोई नहीं जानता l इस खंडकाव्य में इसी तथ्य को बताने का अथक प्रयास किया गया है l इसके अतिरिक्त उसका विवाह जब अभिमन्यु के सँग हो जाता है तत्पश्चात अभिमन्यु की निर्मम हत्या पर उसके असीम दुःख को कौन सोचने वाला था, वह स्वयं l मानव के दुखों का संताप केवल उसी को होता है शेष तो सहानुभूति के आने जाने वाले पथिक की भांति होता है l आपके सम्मुख एक प्रयास है l ✍️ रचनाकार l अजय श्रीवास्तव 'विकल'
1

प्रथम सर्ग

4 जून 2022
3
1
0

नृप विराट की दुहिता वह,  निश्छल थी सुकुमारी थी l कली खिले ज्यों डाली में,  वह कली पिता को प्यारी थी ll 1 ll नित नए-नए रंगों से ज्यों,  नारी मन पुलकित होता है l मृग शावक सी भरती पग-पग,  क्या ज्ञात उ

2

द्वितीय सर्ग

5 जून 2022
0
0
0

सुरसरिता सी पावन कुटिया  तेज पुंज से ज्यों दमके l सौम्य वेश में वह तनया  भारत के मस्तक पर चमके ll 17 ll कुरु समाज में दुखी सभी  भीष्म द्रोण औ' कृप भी थे l किंतु द्रौपदी वस्त्र हरण  इन लोगों ने भी देख

3

तृतीय सर्ग

9 जून 2022
0
0
0

नृप विराट के यहाँ एक कीचक अभिमानी रहता था l हर नारी में मन रमता था व्यभिचारी जैसा दिखता था ll 48 ll आँखों में उसके प्रतिपल वासना ही नाचा करती थी l भोजन, निद्रा औ' व्यर्थ युद्ध जीवन में उसकी करनी थी ll

4

चतुर्थ एवं पंचम सर्ग

10 जून 2022
0
0
0

पांच गांव का सन्धिपत्र कौरव दल में विफल हुआ l युद्ध विकल्प ही शेष रहे पांडव दल में सफल हुआ ll 112 ll युद्ध भूमि में अर्जुन का रथ वासुदेव जब ले आए l संबंधों के उस मोह जाल से आँखों में जल भर लाए ll 113

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए