पांच गांव का सन्धिपत्र
कौरव दल में विफल हुआ l
युद्ध विकल्प ही शेष रहे
पांडव दल में सफल हुआ ll 112 ll
युद्ध भूमि में अर्जुन का रथ
वासुदेव जब ले आए l
संबंधों के उस मोह जाल से
आँखों में जल भर लाए ll 113 ll
ये तो मेरे सब अपने हैं
क्या इनसे युद्ध करूँगा मैं l
जिनकी ऊँगली पकड़ चला
इनके प्राण हरूंगा मैं ! ll 114 ll
इतना कहकर अर्जुन ने तब
गाण्डीव गिराया हाथों से l
निश्चेष्ट पड़े थे अंग सभी
ये शब्द हीन इन बातों से ll 115 ll
हे पार्थ ! यही संबंधी थे
निष्ठुर थे बैठे सभा बीच l
दुःशासन निर्मम हाथों से
थका नहीं था चीर खींच ll 116 ll
क्षत्रिय का जो कर्म लिखा
निर्वाह तुझे करना होगा l
धर्म युद्ध के लिए आज
इन प्राणों को हरना होगा ll 117 ll
यह मृत्यु लोक है पार्थ सुनो
यह अटल सत्य कहलाता है l
भ्रम जाल बना है यह जीवन
सब काल गाल में जाता है ll 118 ll
यह तन तो नाशवान ही है
जो प्राण वायु से चलता है l
वस्त्रों के जैसा तुच्छ मूल्य
हर प्राणी जिसे बदलता है ll 119 ll
आत्म शक्ति न शोषित हो
अग्नि शक्ति न जला सके l
यह तो मेरी ही अमर ज्योति
ब्रम्हांड शक्ति न गला सके ll 120 ll
सब कुछ तो नाशवान ही है
सब पहले से ही मरे हुए l
तू जिनको मारेगा रण में
वे मृत अप्राण से भरे हुए ll 121 ll
अन्याय, पाप और निर्ममता
ये सब इनकी दुर्गुणता है l
इसीलिए ये मरे हुए
प्राण हीन तन जड़ता है ll 122 ll
मन में इतने हैं भाव मलिन
यत्न नहीं जो शुद्ध करें l
इनके बांहों में शक्ति नहीं
जो तेरे सम्मुख युद्ध करें ll 123 ll
पर भीष्म द्रोण पर कैसे मैं
अपना गाण्डीव चलाऊंगा l
एक गुरु हैं और पितामह
क्या इन पर शस्त्र गिराऊंगा ll 124 ll
कृष्ण समझते थे सब कुछ
मोह जाल में पार्थ फंसे l
किन्तु तनिक मुस्कान खिली
अंग-अंग सत्यार्थ कसे ll 125 ll
वह महाकाय हर ओर दिखे
अर्जुन के सम्मुख खड़ा हुआ l
पार्थ चकित आश्चर्य चकित
रहस्य भाव था जड़ा हुआ ll 126 ll
पर्वत स्वरूप था महाकाय
अंग सभी विकराल बने l
जीवन में मृत्यु समाहित थी
जैसे लगता था काल बने ll 127 ll
एक एक अणु तिरते थे
परमाणु विखंडित सृष्टि करें l
सृष्टि संतुलित होती थी
काल लोथ की वृष्टि करें ll 128 ll
जगत पिता का वह स्वरूप
अर्जुन के आँखों में छाया l
धर्म कर्म सत्कर्मों से
बुद्धि ज्ञान मन में आया ll 129 ll
कुछ दूर खड़े थे वासुदेव
होंठों पर थी मधुर हंसी l
पार्थ इसे न समझ सके
जैसे जालों में मीन फंसी ll 130 ll
उस महारुप के पीछे ही
थे वासुदेव ही खड़े हुए l
अर्जुन ने देखा जब उनको
चरणों में उनके पड़े हुए ll 131 ll
ज्ञानोदय की आभा में
पौरुषेय विकराल हुआ l
उत्साह भाव में तत्क्षण ही
गाण्डीव वाण त्रिकाल हुआ ll 132 ll
महायुद्ध की रणभेरी
वीरों का विस्तार हुआ l
बरछे, भाले औ' धनुष वाण
तलवारों से प्रतिकार हुआ ll 133 ll
संबंध मिटे संबंधों के
धर्म युद्ध का स्वर गूँजा l
प्रत्येक दिवस नर कटते थे
वीभत्स भयंकर डर गूँजा ll 134 ll
पांडव अति बलशाली थे
युद्ध विकट भी करते थे l
यदि पार्थ कृष्ण न हों रण में
तो युद्ध भाव से डरते थे ll 135 ll
कुछ यही अवस्था आ पहुंची
गुरु द्रोण ने व्यूह रचा l
अर्जुन लड़ते थे दूर कहीं
पांडव में था कुछ नहीं बचा ll 136 ll
दुर्योधन तो अति गदगद था
पांडव तो जीत न पाएंगे l
युद्ध भूमि तो मेरी है और
विजय सुफल हो जाएंगे ll 137 ll
चिंता में बैठे थे पांडव
संचालन कौन करे रण का l
यह चक्रव्यूह कैसे टूटे?
अर्जुन था पालक इस प्रण का ll 138 ll
तभी उधर आवेशित हो
अभिमन्यु कर में बाण लिए l
गरज-गरज कर वह बोला
चिंता है क्यों निरुपाय किए ll 139 ll
जब मैं था माँ के उदर बीच
पितृ श्री ने कथा कही l
चक्रव्यूह की रचना भी
सुन ली थी मैंने तभी सही ll 140 ll
किन्तु प्रसंग जब आ पहुंचा
अंतिम द्वार टूटने का l
माँ को निद्रा ने आ घेरा
दुःख तो है डोर छूटने का ll 141 ll
प्राण रहेंगे जब तक तन में
युद्ध करूँ मैं काल बनूँ l
अपने बाणों की वर्षा से
कौरव दल का जंजाल बनूँ ll 142 ll
लेकर हाथों में गदा भीम
बोले शपथ मैं लेता हूँ l
अंतिम द्वार तोड़कर ही
प्रण करूँ बनूँ प्रणेता हूँ ll 143 ll
सब कुछ उचित लग रहा था
सब ओजस्वी से लगते थे l
युधिष्ठिर फिर भी चिंतित थे
अर्जुन यदि युद्ध न लड़ते थे ll 144 ll
अभ्यास कुशलता सभी उचित
ज्ञानी होना भी उत्तम है l
कुटिल चाल की कूटनीति भी
जीवन में सर्वोत्तम है ll 145 ll
किन्तु अभी छोटा बालक
बचपन की अल्हड़ता है l
वैरी कितना कुटिल दुष्ट
जो इसमें नहीं सुघड़ता है ll 146 ll
अल्प आयु का महारथी
चक्रव्यूह में झूल गया l
दुष्ट जनों की छाया में
उस माया को वह भूल गया ll 147 ll
पूरी शक्ति लगा दी उसने
वीर पुरुष आतंकित थे l
युद्ध हाथ से निकल जाए
इसीलिए सब चिंतित थे ll 148 ll
दुर्योधन था गरज रहा
नियम सभी त्यागो वीरों l
कुटिल चाल से युद्ध करो
वार करो जागो वीरों ll 149 ll
तब सबने मिलकर वार किया
पँख टूट कर अलग हुआ l
लहूलुहान हो गया कांत
धरती से जैसे विलग हुआ ll 150 ll
अर्जुन की अनुपस्थिति में
वीर बांकुरा रथी कटा l
जिसके पौरुष से कुरुक्षेत्र
लोथों से जैसे लोथ पटा ll 151 ll
तीखे बाणों से बिन्धा हुआ
अगनित घावों पर जमा रक्त l
उसके सम्मुख था रक्त वर्ण
जिसके सम्मुख था कभी व्यक्त ll 152 ll
गिर पड़ी उठी तत्काल नहीं
अस्त-व्यस्त परिधान बने l
सिक्त अधर के अमिय पान
सूखे पत्तों के प्राण बने ll 153 ll
नयनों के सम्मुख यह क्या?
जो पड़ा हुआ कृशकाय कांत l
यह कटा लोथ था कहाँ कटा?
किसके वाणों से हुआ शांत ll 154 ll
स्मरण नहीं क्या प्रिये सखी
वह जीवन कितना कोमल था l
यह वही वाण तो है लाया
जो मेरे सम्मुख श्यामल था ll 155 ll
स्मरण अचानक हो आया
कोमलता में वह अल्हड़ थी l
बिन्धा हुआ रक्ताभ प्राण
ऐसे था आया तत्क्षण ही ll 156 ll
उसके पँखों में लगा रक्त
कुछ ऐसे ही तो रक्तिम था l
किसके बंधन से मुक्त सजल
क्यों मेरे कारण अंतिम था ll 157 ll
कोमल थे उसके प्राण किन्तु
ये मेरे प्राणनाथ तो थे l
वह पक्षी कैसा निष्ठुर था
के गया उन्हें, प्यारे जो थे ll 158 ll
कितनी दोषी थी उस दिन
जो त्याग उसे मैं आई थी l
वही कदाचित निष्ठुरता
उस निष्ठुर पर भी छाई थी ll 159 ll
अल्हड़ता कितनी मादक है
जो अंधकार में जीती है l
मूर्ख विकलता में अपने
रक्त घड़ों को पीती है ll 160 ll
कल्पित यौवन जितना मादक
उतना ही विष से भरा हुआ l
अपनी चंचलता में वह
अनभिज्ञ भाग्य से डरा हुआ ll 161 ll
दुखी व्यक्ति का दुःख केवल
अपने को मात्र सताता है l
अन्य कोई उस रोदन में
मादकता ही दिखलाता है ll 162 ll
विपदा की कैसी आन घड़ी
नयनों में नीर रुदन करते l
चैतन्य अवस्था के श्रम कण
मुख धोते नहीं विकल रहते ll 163 ll
मथ फेन उठाता है कोई
नदियाँ सागर में मिलती हैं l
लहरों से लहरें टकराती
फिर उनसे और निकलती हैं ll 164 ll
अश्रु दुखी मन व्याकुल है
हाथों के तोते उड़ते हैं l
रोते-रोते वे व्यग्र रहे
मानो अपनों से जुड़ते हैं ll 165 ll
नीरव थी मन की चंचलता
विश्वास किसी पर रहा नहीं l
इस उजियारे से जीवन में
अब तक तो कुछ भी सहा नहीं ll 166 ll
आसव थे मन के विकल हुए
चिंतित मन में करुणा ही है l
निकट मृत्यु के पार इधर
कुछ और नहीं मरना ही है ll 167 ll
नियति पृष्ठ पर लिखे हुए हैं
दुःखद व्यथा के शब्द खिन्न l
कुछ जीवन के प्रथम भाग में
कुछ जीवन के इति में भिन्न ll 168 ll
तेरा यह कैसा भाग्य सखी
जीवन में तेरा प्रेम कहाँ l
जिसके गौरव का गान करे
छोड़ तुझे वह चला वहाँ ll 169 ll
सुख तो जीवन का अंगमात्र
जो पहले ही दिन ही रूठ चला l
आँसू का सूखा करुणालय
नयनों के मेरे निकट जला ll 170 ll
अविराम प्रकम्पन स्वतः मंद
अगनित तरुओं पर क्रन्दन है l
आँसू से सिंचित कूल स्यन्द
टप-टप कर उनका बंदन है ll 171 ll
टूटे विराग के पलकों पर
वे थिरते नहीं विकल कम्पित l
बह चले नीर परिधानों पर
जैसे बादल से जल कम्पित ll 172 ll
क्या कहूँ मुझे कुछ पता नहीं
इस संसृति का व्यापार कहाँ l
तुमसे तो प्रतिभा फूटी है
मेरी पृथ्वी का सार कहाँ ll 173 ll
हाहाकार उठा मन में
नयनों में बहते नीर चले l
जो सींच रहा है अंदर ही
कुछ ठोस गहनतम रक्त पले ll 174 ll
व्यथा ह्रदय पर क्यों भारी?
है मेरे सम्मुख भव्य नहीं l
स्वयं कोई मिट जाए यदि
होता क्या कोई दिव्य नहीं ll 175 ll
अति शीघ्र मोह कैसे मिटता
क्षणिक रहे या दीर्घ रहे l
प्रेम युक्त जीवन दुःख में
अश्रु जलों को तुरत सहे ll 176 ll
करुणा से करुणा मिलती है
करुणा ही करुणा को लाती l
करुणा से करुणा विस्तृत है
इस करुणा से मैं रो पाती ll 177 ll
वह असहनीय व्यथा मिलकर
नव रचना में खिल जाती है l
मेरे आँगन में बरबस ही
वह महाशक्ति मिल जाती है ll 178 ll
अभी शेष है युद्ध विकट
निर्णय भी अंतिम मिलना है l
उस निर्दय अन्यायी को
इस महा अग्नि में जलना है ll 179 ll
नव किरणोदय का तेज पुंज
आशा है मेरे जीवन की
कुछ आशंका रह जाती है
इस महायुद्ध के कटु मन की ll 180 ll
पर सत्ता का पक्ष बने
चाहे कितना कंटकधारी l
धर्म पक्ष में विजय लिखी
निश्चय प्रतिपल संशय भारी ll 181 ll
मेरे मानव के रक्त बिंदु
प्रतिकार मुक्त अब जीवन से l
निज संसार रचूंगी मैं
अपने इस कोमल सेवन से ll 182 ll
पुरा संस्कृति का वाहक
कल्याणमस्तु आराध्य बने l
जो सबसे अधिक तपस्वी हो
वही हमारा साध्य बने ll 183 ll
रचना ही करनी है मुझको
नव रचना ही कुलपालक हो l
कुछ शेष नहीं बच पायेगा
यह संरचना संचालक हो ll 184 ll
✍️स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'
आदरणीय मेरे पाठक बन्धुओ, मेरा यह प्रयास कैसा रहा कृपया इसको पढ़ें और बतायें कि मेरी खोज सार्थक रही?
धन्यवाद l